विद्या दुबे
आज (17 अग्रस्त) को भारत की महान विभूति अमृतलाल नागर का जन्मदिन है। नागर उपन्यासकार और कहानीकार के साथ-साथ एक सफल पत्रकार, फिल्म पटकथा लेखक, ऑल इंडिया रेडियो में नाटक निर्माता के रूप में भी कार्य कर चुके थे। खांटी लखनवी थे अमृतलाल लाल नागर! उनका जीवन एक मिसाल है, आइए जानते हैं कैसे थे महान अमृतलाल नागर
इतने बड़े रचनाकार और उनके इतने बड़े रचना संसार को भूल जाना या फिर उनकी तस्वीर पर माल्यार्पण कर देने भर से हम सभी का उत्तरदायित्व खत्म नहीं हो जाता है, जिस रचनाकार ने हिंदी साहित्य को ही नहीं, बल्कि अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य को भी अपनी लेखनी से समृद्ध किया हो, जिसने हिंदी साहित्य को नया पाठक और लेखक वर्ग दिया हो, जिसने हिंदी फिल्मों में अपना योगदान दिया हो, उस अद्भुत विभूति की जन्मदिन को मात्र साहित्यिक कार्यक्रम के रूप में नहीं बल्कि एक सामाजिक उत्सव के रूप में मनाया जाना चाहिए, जिस इंसान ने अपना पूरा जीवन लेखन-कार्य (साहित्य) में लगा दिया हो उसके लिए आज क्या हमारी यही श्रद्धांजलि है?
गोरा-चिट्टा रंग, स्वस्थ सुगठित शरीर, मुख में पान,आंखों में भांग के डोरे, कानों तक लटकते बाल- यह था श्री अमृतलाल नागर का व्यक्तित्व, अत्यन्त हंसमुख एवं मधुरभाषी थे। अमृतलाल नागर हिंदी गद्य साहित्य के उन शिखर पुरुषों में गिने जाते हैं, जिनके गद्य से हिंदी साहित्य ही नहीं बल्कि अन्य भारतीय भाषाओं का साहित्य भी समृद्ध हुआ है
उनके द्वारा सम्पादित हास्य-व्यंग्य की पत्रिका ‘चकल्लस को देखकर आचार्य पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी ने कहा कि एक लेखक के शब्दों में यदि यह कहा जाए कि नागरजी लखनवी सभ्यता और संस्कृति के प्रतिनिधि थे, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। नागरजी बड़े ही मिलनसार प्रकृति के थे, पहली मुलाकात में ही वे व्यक्ति के साथ सहज भाव से घुल-मिल जाते थे। चकल्लस का आठवां अंक देखकर मेरा मुर्दा दिल भी जिंदा-सा हो उठा। इस अंक में हास्य रस प्रधान कितने ही लेख बड़े मौके के हैं। कवितायें भी उसी रस से सराबोर हैं।
अमृतलाल नागर की बेटी और मशहूर फ़िल्म कथाकार अचला नागर कहती हैं वे बहुत ख़ूबसूरत थे। काफ़ी लोग उन्हें मुस्लिम समझते थे, क्योंकि उनकी ज़बान बहुत अच्छी थी। शुरुआती दिनों में वो अचकन भी पहन लेते थे कई बार, लेकिन बाद में तो वो सफ़ेद कपड़ों पर आ गए थे। अपने बारे में उन्होंने एक शब्द चित्र लिखा है कि मैं बीच की मांग निकालता हूं और मेरी आंखों की पुतलियों का रंग हल्का भूरा, सुनहरा है। मेरी मुस्कराहट ख़ुशनुमा है। जब उन्हें क्रोध आता था, तो किसी बाहर वाले पर नहीं आता था।” नागरजी के रहन-सहन और आचार-व्यवहार में लखनवी नजाकत और नफासत घुल-मिल गई थी. नागरजी के व्यक्तित्व का यह स्वरूप उनके उपन्यासों में भी झांकता हुआ दिखाई देता है।
आर्थिक दिक्कतों के चलते नहीं ले सके उच्च शिक्षा
अमृतलाल नागर का जन्म 17 अगस्त 1916 को गोकुलपुरा, आगरा, उत्तर प्रदेश में हुआ था। उनके पिता का नाम पण्डित राजाराम नागर था तथा उनकी माता का नाम विद्यावती नागर था। उन्होंने हिन्दी कथा-साहित्य को सांस्कृतिक वैचारिकता, भाषा की असीम शक्ति और अनूठी लखनवी शैली के जरिये एक नया अन्दाज दिया। पारिवारिक कठिनाइयों के कारण वे उच्च शिक्षा प्राप्त नहीं कर सके। लेकिन अपनी लगन से उन्होंने साहित्य, इतिहास, पुराण, पुरातत्व, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान आदि विषयों पर तथा हिन्दी, गुजराती, मराठी, बांग्ला एवं अंग्रेज़ी आदि भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया। उन्होंने पहली बार दिसंबर 1928 में पाक्षिक आनंद में एक कविता प्रकाशित की थी। यह कविता साइमन कमीशन के विरोध से प्रेरित थी, जिसमें अमृतलाल को लाठी चार्ज के दौरान चोट लगी थी।
हर तरह के लेखन को किया समृद्ध
अमृतलाल नागर ने एक लेखक और पत्रकार के रूप में अपने करियर की शुरुआत की, कुछ समय तक मुक्त लेखन एवं 1940 से 1947 ई. तक कोल्हापुर में हास्यरस के प्रसिद्ध पत्र ‘चकल्लस’ के सम्पादन का कार्य किया। इसके बाद बम्बई एवं मद्रास के फ़िल्म क्षेत्र में लेखन का कार्य किया। लेकिन वे 7 साल तक भारतीय फिल्म उद्योग में एक सक्रिय लेखक बने रहे। उन्होंने दिसंबर 1953 और मई 1956 के बीच ऑल इंडिया रेडियो में एक ड्रामा प्रोड्यूसर के रूप में काम किया। उसके कुछ समय बाद स्वतंत्र लेखन का कार्य किया।
‘नाच्यौ बहुत गोपाल’, ‘बूंद और समुद्र’, ‘खंजन नयन’ ‘अमृत और विष’, ‘मानस का हंस’, ने उन्हें हिन्दी-साहित्य जगत का महत्त्वपूर्ण स्तम्भ बना दिया। पत्रकारिता का क्षेत्र भी नागरजी की बहुमुखी प्रतिभा से अछूता नहीं रहा। वे ‘सुनीति’, ‘सिनेमा समाचार’ और ‘चकल्लस’ आदि पत्रिकाओं के सम्पादन से सम्बद्ध रहे। हिंदी साहित्य में ये तो आत्मकथाएं बहुत लिखी गई हैं, लेकिन बहुत कम लोगों ने अपना ख़ुद का सेल्फ़ पोर्ट्रेट कागज़ पर उतारने की कोशिश की है। उन्होंने नाटक, रेडियोनाटक, रिपोर्ताज, निबन्ध, संस्मरण, अनुवाद, बाल साहित्य आदि के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उन्हें साहित्य जगत् में उपन्यासकार के रूप में सर्वाधिक ख्याति प्राप्त हुई।
श्रीमती महादेवी वर्मा ने एक कविता लिखी थी, जिसकी अंतिम पंक्ति इस प्रकार है।
“जैसा काम तुम्हारा वैसे ही तुम अमृतलाल हो,’
प्रतिभा के जन्मजात धनी नागरजी को अपने पिताजी के मित्र पं. माधव शुक्ल, बाबू श्यामसुन्दरदास, पं. ब्रजनारायण चकबस्त प्रभृति कला के धनी महानुभावों का सानिध्य प्राप्त हुआ और इस सत्संग ने उनकी प्रतिभा को दिशा प्रदान की। सन् 1928 में साइमन कमीशन का बहिष्कार भारत के स्वतन्त्रता आंदोलन का इन पर बहुत असर हुआ, उस समय नागर जी केवल 13 वर्ष के थे, उनकी लेखनी बोल पड़ी –
“कब लौं कहां लाठी खाया करें, कब लौ कहां जेल भरा करिए”
इसी राष्ट्रीय भावना से प्रेरित हो इन्होने अपनी वीर रस से भरे साहित्य की सर्जना की। इन्हीं दिनों नागरजी ने प्रसाद के ‘आंसू, हितैषी की तीन कविताओं, सोहन लाल द्विवेदी की ‘किसान’ कविता की तथा कुछ अन्य कविताएं लिखीं। 15 वर्ष की अवस्था में आपकी पहली कहानी ‘प्रायश्चित’ स्थानीय पत्रिका ‘आनन्द’ में प्रकाशित हुई। सन् 1935 में आपका प्रथम कहानी-संग्रह ‘वाटिका’ प्रकाशित हुआ, कथाकार नागरजी का यह पहला कदम था। उन्होंने सामाजिक, राजनीतिक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक सभी प्रकार के उपन्यास लिखे हैं. प्रायः समस्त उपन्यासों में सामाजिक चेतना के दर्शन होते हैं।नागरजी ने प्रेमचन्द के समान अपने उपन्यासों में मानवतावादी मूल्यों की स्थापना बहुत ही सुन्दर ढंग से की है, रामबिलास शर्मा ने उनके विषय में लिखा है कि “नागरजी जो बात कहते हैं, बेलाग कहते हैं, वह बेलाग होती है और उसे वह मुँह पर कहते हैं।
ऐसा साहित्यकार जो अपने मानदेय से करता था लेखकों की मदद
अमृतलाल नागर का जन्म तो आगरा के एक गुजराती ब्राह्मण परिवार में हुआ था। पर वह लखनऊ आए तो यहीं के होकर रह गए। बात कमलापति त्रिपाठी के मुख्यमंत्रित्व काल की है। भगवतीचरण वर्मा उत्तर प्रदेश हिंदी समिति के अध्यक्ष बनाए गए, किसी की धौंस और धमकी बर्दाश्त करना तो उनके खून में ही नहीं था। नतीजतन अधिकारियों से पटरी नहीं खाई और उन्होंने एक वर्ष में ही जेब से इस्तीफा निकालकर मुख्यमंत्री को भिजवा दिया। कमलापति त्रिपाठी ने समझाया और मनाया लेकिन नहीं माने।
पैसा लेने से किया इनकार
किसी भी तरह न मानने पर अमृतलाल नागर को अध्यक्ष बनाने का फैसला किया गया पर नागर जी ने यह कहते हुए सरकार से मना कर दिया, ‘मैं इस पद को तभी संभालूंगा जब भगवती बाबू आश्वस्त कर देंगे कि वह इसका बुरा नहीं मानेंगे।’ भगवती बाबू ने नागर जी को आश्वस्त किया कि वह इसका बुरा नहीं मानेंगे। तब नागर जी ने हिंदी समिति के अध्यक्ष पद को स्वीकार किया। अध्यक्ष पद स्वीकार करने के बाद वह घर पहुंचे और एलान कर दिया, ‘हिंदी समिति के अध्यक्ष पद के नाते जो मानदेय मिलेगा, उससे एक पाई भी घर पर खर्च नहीं होगी। पूरा मानदेय एक बैंक में लेखक फंड का अकाउन्ट खोलकर जमा कर दिया जाए, जिससे जरूरतमंद लेखकों व साहित्यकारों की मदद की जाएगी। कहा, जो पद टिकाऊ नहीं उसका मानदेय घर पर खर्च करके आदत बिगाड़ना ठीक नहीं।
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ये हैं उनके विशेष प्रसिद्ध उपन्यास
सेठ बाँकेमल, महाकाल, बूंद और समुद्र तथा अमृत और विष इनके अतिरिक्त ‘नवाबी मसनद’, ‘गदर के फूल’, ‘शतरंज के मोहरे’, ‘ये कोठे वालियाँ’ तथा ‘सुहाग के नूपुर’ हल्के किन्तु बहुचर्चित उपन्यास हैं। नागरजी के अधिकांश उपन्यास सामाजिक हैं। उनमें समाज का यथार्थपूर्ण सजीव चित्रण पाया जाता है। सेठ बाँकेमल इसी प्रकार का एक हास्य व्यंग्यपूर्ण उपन्यास है, जिसका प्रकाशन सन् 1955 में हुआ। इसमें दो पात्र हैं-सेठ बाँकेमल और पारसनाथ चौबे, इन दो पात्रों के माध्यम से उपन्यासकार ने नवीन और प्राचीन युगों का सजीव चित्रण प्रस्तुत किया है।
रचनाओं में यथार्थ को उतारा
द्वितीय विश्वयुद्ध के दिनों के भारतीय जीवन की न मालूम कितनी बातों की आलोचना नागरजी के सेठ बाँकेमल हँसी-हँसी में कर जाते हैं। ‘महाकाल’ का प्रकाशन सन् 1947 में हुआ. यह उपन्यास बंगाल के सन् 1943 वाले दुर्भिक्ष की पृष्ठभूमि पर आधारित है। इस उपन्यास में मानवीय दुर्बलताओं का सुन्दर चित्रण किया गया है। ‘बूंद और समुद्र’ (1956) इनका श्रेष्ठतम उपन्यास है। इसमें व्यष्टि और समष्टि का सामंजस्य प्रस्तुत किया गया है, ‘सुहाग के नूपुर’ (1960) में यह दिखाया गया है कि केवल नारी का सती रूप ही पुरुष को बल दे सकता है।
ये कोठे वालियाँ’ में वेश्या- समस्या के विरुद्ध जेहाद का स्वर मुखर है, ‘अमृत और विष’ नागरजी का श्रेष्ठ उपन्यास है. इसमें विष रूप में समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार और अनैतिकताओं का चित्रण है- अमृत अच्छाई का और विष बुराई का प्रतीक है, ‘मानस का हंस’ में गोस्वामी तुलसीदास की जीवन-कथा प्रस्तुत की गई है। ‘खंजन नयन’ में सूरदास की गाथा को प्रस्तुत किया गया है।
सबसे ऊपर शुमार है अमृतलाल नागर का नाम
हिंदी साहित्य में या कहें प्रेमचंद के यथार्थवादी धारा के प्रमुख रचनाकारों में अमृतलाल नागर का नाम सबसे ऊपर शुमार है। नागरजी ने सैकड़ों कहानियों की रचना की. इनमें कतिपय कहानियाँ विशेष रूप से चर्चित हैं-अवशेष, आदमी नहीं, ‘नहीं’, एक दिल हजार अफसाने, एक दिल हजार दास्तां, एटम बम, पाँचवाँ दस्ता और सात कहानियाँ, उतार-चढ़ाव, चन्दन-वन, चक्करदार सीढ़ियाँ और अंधेरा, चढ़त न दूजो रंग, नुक्कड़घर, बात की बात, युगावतार-ये सभी नागरजी के नाटक हैं तथा हास्य व्यंग्यों में कृपया दाएं चलिए, चकल्लस, नवाबी मसनद, भारत पुत्र नौरंगीलाल, सेठ बांकेमल, मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएं , हम-फिदाए लखनऊ तथा अनुदित साहित्य प्रेम की प्यास, बिसाती तथा क्रांति; सर्वेक्षणों में-गदर के फूल, चैतन्य महाप्रभु (जीवनी), जिनके साथ जिया (संस्मरण). टुकड़े-टुकड़े दास्तान, (आत्म-परक लेख-संकलन) साहित्य तथा संस्कृति एवं मेरा प्रवास प्रमुख हैं।
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नागर जी को अनेक सम्मान एवं पुरस्कार प्राप्त हुए। सन् 1947 में ‘अमृत और विष’ उपन्यास पर साहित्य अकादमी पुरस्कार और सन् 1970 में सोवियत लैण्ड नेहरू पुरस्कार प्रदान किए गए। सन् 1981 में भारत सरकार ने नागरजी को ‘पद्मभूषण’ द्वारा अलंकृत किया। सन् 1986 में बिहार राज्य सरकार ने इन्हें एक लाख रुपए के डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शिखर सम्मान द्वारा सम्मानित किया तथा सन् 1989 में उत्तर प्रदेश सरकार ने आपको सम्मानित करके लोगों का ध्यान आकर्षित किया।
हिंदी साहित्य में आज भी उनकी कमी खलती है। उनके तरह के उपन्यास अगर आज भी लिखे जाते तो पाठकों का बड़ा भला होता।