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रोजाना एक कविता : आज पढ़ें दामिनी यादव की कविता मेरे पिता

A poem a day

मैंने सुना है कि सुबह होने पर जो कहीं चले जाते हैं
शाम होने पर वे पिता लौट आते हैं
कई पिताओं को देखा है उंगली पकड़कर रास्ता पार कराते भी
या स्कूल के गेट तक छोड़ आते हैं
कई पिताओं को बनाते देखा है बेटियों की टेढ़ी-मेढ़ी चोटियां
कई पिता नन्ही हथेलियों को मेहंदी से सजाते हैं
कुछ पिता किचेन में कभी लज़ीज़, कभी अधपका पकाकर भी
बेटियों को खिलाते हैं,
चेहरे बना-बनाकर सुनाते हैं कहानियां रातों को कई पिता
और कई पिता आधी रातों को
नींद में डूबी बेटियों की चादर ठीक कर आते हैं
हज़ारों पिता देते दिखे हैं बेटी की डोलियों को कांधा देते
नज़रों के सामने हमेशा हाज़िर रहते
सिर्फ़ अपने पिता को ही पाया है मैंने बस
ज़िंदगी के साथ नहीं, ज़िंदगी के बाद भी साथ देते
मेरे पिता मेरी यादों में बसे हैं
मेरी ज़िंदगी की नींव में गहरे तक धंसे हैं
वे नहीं लौटेंग किसी भी शाम को
मेरी ज़िंदगी की शाम ढल जाने पर भी
पर मेरे पिता सुबह-शाम के फ़र्क से परे
मेरी ज़िंदगी के हर अंधेरे का उजाला हैं
वे मेरी उंगली थाम कर रास्ता भी पार नहीं कराएंगे
और किसी स्कूल के गेट पर मुझे छोड़कर भी नहीं आएंगे
पर जानती हूं बहुत अच्छे से कि
हर बार भटककर भी रास्ते पर आने का रास्ता
मेरे पिता ही मुझे बताएंगे
शब्दों में नहीं देंगे कोई ज्ञान मुझे
ज़िंदगी के सबक देते वक़्त को ही उस्ताद मानकर
मुझे उसे सौंप आएंगे
मेरे बाल काम में उलझे, अक्सर संवर नहीं पाते हैं
पर अनदेखी उंगलियों से मेरे पिता
अक्सर मेरे बाल संवार जाते हैं
मुझे अब उनके पकाए बहुत से ज़ायक़े याद नहीं
पर नमक का कर्ज़ चुकाना
और ज़बान को मीठा बनाना
ये मेरे पिता की सिखाई हुई रैसिपी ही है,
चेहरे बनाते पिता तो याद नहीं हैं,
पर यादों में पिता का चेहरा बार-बार
बनता-उभरता, संवरता है
इसीलिए नींद में डूबकर भी
चादरें संवारे रखने का सलीक़ा याद रहता है
मेरे पिता मेरी डोली को कांधा नहीं दे पाए
पर अपना ही नहीं, अपनों की ज़िम्मेदारी को कांधा देने के सबक
मेरे पिता ने ही हैं मुझे सिखाए।
मैं जानती हूं कि मेरे पिता वहां हैं,
जहां से कोई आता नहीं है
पर सच कहूं तो वहां पहुंचा कोई पिता
कभी अपनी बेटियों से दूर जाता ही नहीं है।

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