
आरिफ सुभानी नामक एक पक्के दरवेश थे। उन्हें दुनिया की किसी भी चीज से लगाव न था। पहनने के कपड़ों के अलावा उनकी अपनी कहलाने वाली कोई चीज नहीं थी। शान्तिप्रिय और सादगीपसन्द होने के कारण उनके विचार दूसरों से मेल नहीं खाते थे। मन्दिर, मस्जिद और गिरजाघर में भी वे कोई भेद नहीं मानते थे।
एक बार उनके पास एक व्यक्ति रियाज सीखने आया। तब उन्होंने उस व्यक्ति से पूछा, “क्या तुम्हें और कोई दूसरा आदमी नहीं मिला?” उस व्यक्ति ने कहा, “नहीं, आपसे ही सीखना है।” इस पर सुभानी ने कहा, “भाई, यदि तू मुलसमान है, तो ईसाइयों के पास जा; अगर शिया है, तो इखराजियों (एक मुस्लिम संप्रदाय के पास जा और अगर सुन्नी है तो ईरान जा।”
उस व्यक्ति को यह सब अटपटा लगा, तब वे बोले, “मतलब यह कि तू जिस धर्म को मानता है, उस धर्म के विरोधी के पास जा। उस विरोधी के मुंह से उसके धर्म की बातें सुनते-सुनते जब तुझमें इतनी सहनशक्ति आ जाएगी कि तुझे किसी बात का दुःख न होगा और तुझे अपने विरोधियों के साथ भी रहने में हिचकिचाहट न होगी, तभी तुझे सच्ची शान्ति मिलेगी और खुदा के बंदों में तू स्थान पा सकता है।
तू इस बात को अपनी गांठ में बांध ले कि कोई भी धर्म, दूसरे धर्म का बाधक नहीं होता। खोट हमारे मन में होती है कि हम अपने धर्म को श्रेष्ठ और दूसरे धर्मों को तुच्छ समझते हैं और उन्हें कुधर्म मानकर घृणा करते हैं।