पिता के निधन के बाद विवेकानंद के घर की आर्थिक दशा चिंताजनक हो गई। उन पर काफी कर्ज था। दूसरी ओर विवेकानंद रामकृष्ण में तल्लीन रहते थे। मां किसी तरह अभावों के बीच गृहस्थी चला रही थी। विवेकानंद जब घर लौट कर आते और पाते कि भोजन मां के लिए ही कम है, उसमें दूसरे की गुंजाइश नहीं है, तो किसी के घर से निमंत्रण का बहाना करके निकल जाते और गलियों में थोड़ी देर टहलने के बाद लौटकर चले आते।
इस बात का पता रामकृष्ण को लगा तो उन्होंने विवेकानंद को बुलाकर कहा कि तू मंदिर में जाकर मां से क्यों नहीं मांग लेता? विवेकानंद मंदिर में मांगने गए। रामकृष्ण बाहर बैठे थे। घंटों बीत गए। विवेकानंद बाहर आए।
आंखों से आंसुओं की धार बह रही थी। परम आनंदित। रामकृष्ण ने कहाः मांग लिया? विवेकानंद ने जवाब दियाः नहीं मांग सकूंगा, क्योंकि मां जब सामने खड़ी हो तो मांगना कैसा? क्या उसे पता नहीं है? विवेकानंद ने गुरु रामकृष्ण से कहा कि अंदर जाकर ऐसा आनंद बरसता है कि याद ही नहीं से रहता कि भूख लगी है। शिष्यों ने देखा कि विवेकानंद को सुनते हुए रामकृष्ण की आंखों से भी जल बरस रहा था।