एक बार सूफी सन्त शिवली अपने हाथों में एक जलता हुआ अंगारा और जलती लकड़ियां लेकर सड़क से जा रहे थे। लोगों ने देखा तो उन्हें आश्चर्य हुआ। उन्होंने पूछा, यह क्या माजरा है?”
वे बोले, “इस अंगारे से खान-ए-काबे को जलाने जा रहा हूँ।” यह सुन लोगों को बड़ा गुस्साआया कि यह खुदा के घर को, जो कि दुनिया भर के लोगों का जियारत (तीर्थस्थान) है, मुसलमान होकर भी जलाने की बात करता है।
वे उन्हें जब भलाबुरा कहने लगे, तो वे बोले, “मैं चाहता हूं कि लोग सीधे खुदा की ओर चलें। काबा के बजाय लोग साहबे-काबा (खुदा) की तरफ मुत्तवज्जह (आकृष्ट) हों।” लोग इस उत्तर से सन्तुष्ट हो गये। फिर एक ने पूछा, “इन लकड़ियों को आपने हाथ में क्यों रखा है?” उन्होंने उत्तर दिया, “मैं इन लकड़ियों से जनत(स्वर्ग) और दोजख (नर्क) दोनों को जलाना चाहता हूँ।
जिससे लोग बिना किसी सबब के अल्लाह की इबादत करें” लोगों को बात जंच गयी कि निष्कामता निर्भयता और निर्लोभता वाली भक्ति ही सच्ची भक्ति है, मगर लोग तो नर्क के डर एवं स्वर्ग के लोभ से खुदा की इबादत करना चाहते हैं।