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रोजाना एक कविता : दूधनाथ सिंह की चुनिंदा कविताएं

दूधनाथ सिंह, साठोत्तरी पीढ़ी के कवि-कथाकार-आलोचक, जिनके शब्दों में जीवन की घनी संवेदना होती है। उन्होंने जो भी लिखा, बेजोड़ लिखा। आज (17 अक्तूबर) दूधनाथ सिंह का जन्मदिन है। प्रस्तुत है इंडिया ग्राउंड रिपोर्ट की ‘रोजाना एक कविता’ श्रृंखला में दूधनाथ सिंह की चुनिंदा कविताएं।

तुम्हारे दिन लौटेंगे बार-बार

तुम्हारे दिन लौटेंगे बार-बार, मेरे नहीं ।
तुम देखोगी यह झूमती हरियाली
पेड़ों पर बरसती हवा की बौछार
यह राग-रंग तुम्हारे लिए होंगी चिन्ताएँ
अपरम्पार ख़ुशियों की उलझन
तुम्हारे लिए होगी थकावटें
जंगल का महावट पुकारेगा तुम्हें बार-बार
फ़ुर्सत ढूँढ़ोगी जब-तब
थकी-हार तब तुम आओगी
पाओगी मुझे झुँझलाओगी
सो जाओगी कड़ियाँ गिनते-गिनते सौ बार ।

इसी तरह आएगी बहार
चौंकाते हुए तुम्हें
तुम्हारे दिन ।

मुझे लोग तुमसे विलग कर देंगे

मुझे
लोग तुमसे विलग कर देंगे
जैसे बच्चे को माँ से छीना जाता है
उसके आँसू उसकी चीख़ मुझे सुन पड़ रही है
अचानक मेरा हाथ तुम्हारी हरी चुनरी से बिछड़ जाएगा
थोड़ी हरियाली मेरे आँसुओं में
थोड़ी अन्तस में तुम्हारे चुपचाप
थोड़ा देखना तुम्हारा दूर दिशाओं में
जिधर मैं घुल गया मिट गया अदृश्य के सूनेपन में
मेरे रक्त-रहित खँडहर का मुड़ना तुम्हारी ओर
जिधर तुम बेबस चुपचाप इतिहास-रहित लौट गईं

अपनी महत्ता की दमक में रहो
जो दिन शेष हैं
सुखी और अपूर्ण
दर्शन देते हुए
नैतिकता के स्वांग
में मुस्कुराओ
घिरे हुए
चिरे हुए
बस याद करो कभी-कभी
उसको जो
था ।

वहाँ कोई चल रहा है

वहाँ कोई चल रहा है
कभी आगे कभी पीछे
कभी मेरे बराबर पर।

सुबह की फूटी किरन
बस पास मेरे
है उजाला औ’ क्षणिक
उल्लास मेरे

नहीं कुछ भी बोलता है
प्रतीक्षा में आँख
अपनी खोलता है
दूर पर मेहराब जैसा चाँद
निष्प्रभ-बादलों की धूल ओढ़े।
मैं उन्हीं पगडंडियों पर
अब अकेले शून्य की
थामे हथेली घूमता हूँ
डूबता हूँ घनी अँधियारी
हरी बिखरी घास के सुनसान में
वह हथेली ढूँढ़ता हूँ
जो हमारे हाथ में है
खिलखिलाती।
वह हमारा जंगलों के
साथ का वह हाथ
बेकस! अब
कहाँ!

यह जो हवा झूमती है

यह जो हवा झूमती है
यह तुम्हारा स्पर्श लेकर आ रही है
हुँहकार जो है, वह तुम्हारे दुख की ललकार है
पानियों में जो दमक निर्देमक है
जो गाद-कीचड़ मेंह है
वह तुम्हारे आत्मा की रौंदी हुई
वह देह है
निर्माल्य मेरा
निष्कलंक पवित्र
तेरा दुख है।

मैं उसी को पूजता हूँ
कूजता हूँ सप्त
सुर में।

बातों के ऊपर बातों के पात बिछे
बातों के ऊपर बातों के पात बिछे
वे बातें नहीं जो कहनी वे
भीतर हैं बातों के नीचे
तह में। ऊपर जो धुआँधार शब्द
उनको हम नहीं सुनते
सुनते उनको
जो नहीं कहते।

यही तो जीने का ढब
अब। जो अनभिव्यक्त
वही है व्यक्त।

कैसे चलेगा जीवन
जो निकल गया
सुख के भरम में
जो विकल गया!

मेरी दाहिनी ओर
एक हरा रंग
उड़ता हुआ।

मेरी बाईं ओर
क्षितिज
पर इन्द्रधनुष।

मेरे दाएँ हाथ ने
छुआ
अब छुआ तुम्हें
निराकार।

किधर हो तुम कहाँ हो
जंजाल में दुख-जाल में
हैं मछलियां
जो हँस रही थी
अभी कल तक

ताल में।

लौट आओ, ताल में जल
प्रतीक्षा में है।
थिरकती है एक लहर
अकाल में तुम
लौट आओ

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