
संस्मरण : इरफ़ान! तुमको याद रखेंगे गुरु हम

दसवीं की वार्षिक परीक्षाएं (10th annual examinations) चल रही थीं। परीक्षा-केंद्र दूर था, तड़के ही निकलना होता था, सो प्रातः उठकर स्नान-ध्यान करके भैया के साथ निकल जाता था। सर्दियों की सुबह थी, धुंध में कुछ सूझता नहीं था, धीरे-धीरे जाते थे। पहले दिन आधी राह में पहुंचे होंगे कि मुझे नथुनों में एक सुगन्ध का अनुभव हुआ। गंध इतनी तीव्र कि मानो सैकड़ों चंदन की अगरबत्तियां एक साथ सुलगाई गईं हो। पवित्रता से मन भर आया। भैया से कुछ कहा नहीं। अगले पेपर की सुबह भी यही हुआ, वहीं पवित्र सुगंध! उस दिन भी हैरत करके आगे बढ़ गया।
किंतु अगले दिन मुझसे रहा नहीं गया। मैंने उनसे पूछा कि इस नियत जगह पर ही क्यों इतनी तीव्र सुगंध आती है? जबकि आस-पास कुछ दिखता नहीं! उन्होंने मुझसे बताया था कि पास में ही इक मज़ार है। और सुबह पाक़ रूहें जागती हैं। ये उन्हीं के उपस्थिति की गंध होती है। उन्होंने मुझे हिदायत दी कि ऐसी गन्ध आने पर मैं कभी दुबारा न टोकूं। इस बात को कई बरस बीते। पर इतने सालों में मुझे एकाध-बार छोड़कर उस पवित्र गन्ध का एहसास कभी नहीं हुआ।
मेरी दिली-ख़्वाहिश थी कि मैं इरफ़ान से मिलूं। गांव में ही था, तभी खबर मिली कि इरफ़ान ने देह बदल ली। फिर भी मन के किसी तल में ये बात बसी थी कि इरफ़ान से मिलना है। पिछले महीने ये सौभाग्य मिला। मुंबई के एक साथी पवन को जब पता चला कि मैं मुंबई में हूं, तो उन्होंने मिलने का आग्रह किया। मानव कौल ने अपने पहले उपन्यास के लिए लिखा है कि मुझे उपन्यास लिखने के सपने आते थे। मैं अपना हाल कहूं, तो मुझे इऱफान से मिलने के सपने आते थे; उनके जाने के बाद भी।
एक रात सपना देखा कि इऱफान मेरे सामने खड़े हैं। क्षणांश के लिए वो सैकड़ों चंदन-अगरबत्तियों वाली सुगंध आई, और मैं जब तक कुछ समझता, तब तक आंख खुल चुकी थी। अगली सुबह मैंने सीधे पवन को फोन किया कि मुझे इऱफान से मिलना है, और आपसे भी। उन्होंने कहा कि आप बस वर्सोवा आ जाइए, देख लेंगे। बुआ के लड़के के साथ वर्सोवा पहुंचा। पवन सीधे उसी जगह ले गए, जहां इऱफान चिर-निद्रा में सोए थे। इऱफान को उजले फूल बहुत पसंद थे, सोचा मोगरे लेते चलूं, बाहर मोगरे नहीं, मिले तो दो गुलाब ले लिए।
पवन ने अंदर घुसते ही पूछा कि क्या आप बता सकते हैं कि रूहदार की कब्र कौन-सी है? मैंने कहा हां। नहीं ढूंढ पाया। पवन ने ही आगे कहा कि जहाँ सबसे ज्यादा फूल होंगे, वहीं अपने इऱफान लेटे होंगे। बात सही भी थी। थोड़ा अंदर चलने के बाद दाहिने ही इऱफान की कब्र थी। पास ही उजले फूल खिले थे। मैंने सजदा किया और मिट्टी चूमी। विश्वास ही नहीं हो रहा था कि इतना बड़ा कलाकार मेरे सामने पड़ा है, एकदम पास। पवन थियेटर-आर्टिस्ट हैं। मैं अभी सम्भल ही रह था कि उन्होंने इऱफान के ‘रोग’ फ़िल्म का मोनोलॉग बोलना शुरू किया।
पिछले गुरुवार को मैंने अपनी जान लेने की कोशिश की थी। कोई तनाव नहीं है, मन ऊब गया है। मैं जितनी देर वहां रहा उसी पवित्र सुगन्ध के सानिध्य में रहा जो पाक़ रूहों से निकलती है। मुझे हिदायत याद थी, तो मैंने टोका नहीं। गुलाब चढ़ाते वक़्त आंखें भरभरा आयीं। मैं किसी को कैसे बता पाऊंगा कि इऱफान मेरे लिए क्या थे? वहां से निकलकर पवन के कमरे पर जाना हुआ। वहां भी ज़ेहन में रोग फ़िल्म का शुरुआती दृश्य चल रहा था। “मन ऊब सा गया है।” दृश्य आपने देखा हो तो ध्यान होगा कि इसमें व्यथा पहले प्रकट होती है, ध्वनि बाद में पीछा करते हुए आती है। ये इऱफान थे। आंखों से दृश्य कह डालते थे।
रजनीश (Rajneesh) ने एक सूत्र दिया था कि जीवन ऐसे जियो जैसे अभिनय कर रहे हो, और अभिनय ऐसे करो, जैसे जीवन जी रहे हो। साहबज़ादे ने ये दोनों बातें साध ली थीं। इसमें कोई संदेह नहीं कि इऱफान सिद्ध अभिनेता थे, पर मुझे इऱफान मनुष्य के रूप में अधिक पसन्द हैं। इऱफान की फिल्में नष्ट हो सकती हैं, चरित्र भुलाए जा सकते हैं, पर इऱफान नहीं। मीर तक़ी मीर ने जिसे “इंसान” कहा था, इऱफान वो थे।फ़िल्म-इंडस्ट्री का ग्लैमर लोगों को अंधा कर देता है, पर इस अचेत दुनिया में भी इऱफान जागे हुए थे।
जीवन और मृत्यु के प्रति उनका इतना सुंदर दर्शन था कि सोचकर ही मन पुलक उठता है। सुतापा एक चिट्ठी में लिखती हैं कि इऱफान कहते थे हर लम्हा जादुई है। सुतापा अपने बच्चों से पूछती हैं कि आप अपने पिता की कौन सी बात जीवन में ढालना चाहेंगे? बड़े बेटे बाबिल (babil) ने कहा- अस्तित्व के सामने समर्पण करना और क़ायनात पर ऐतबार रखना। ख़ुद को फ़ना इऱफान ही कर सकते थे। उनसे किसी ने पूछा कि आपने अपने नाम से साहबज़ादे और खान क्यों हटा लिया? इऱफान कहते हैं मैं ज्यादा बोझ लेकर नहीं चलना चाहता। ज़रूरत पड़ी तो इऱफान भी हटा दूंगा। नीरज की पंक्ति है- ” जितना कम सामान रहेगा/ उतना सफ़र आसान रहेगा। ” इऱफान बहुत पहले ये समझ गए थे।
पहले आश्चर्य होता था कि इऱफान में ऐसा क्या है जो हर हृदय को छू जाता है? अभिनय? नहीं और भी श्रेष्ठ अभिनेता हुए हैं, तो आख़िर वो कौन-सा तत्व है, जो क्रूरतम हृदय को भी पिघला देता है? आंखे! सजल-नयन।
व्यक्तिगत रूप से मुझे दो जोड़ी आंखें बहुत पसंद हैं। पहली महात्मा बुद्ध की, तो दूजी आचार्य रजनीश की। बुद्ध की आंखों में सहजता थी, कोमलता थी। जैसे पीपल के पत्ते हवा के स्नेहिल स्पर्श से समर्पित झरते हैं, करुणा-मूर्ति की आंखें वैसी थीं, तो वहीं रजनीश की आंखें सजग थीं। मानो हर वक़्त तुम्हें देख रही हैं। मैंने ईश्वर की आंखों की कल्पना रजनीश के नेत्रों के रूप में की है। उनकी आंखों में चपलता थी। जैसे महुए भदभदा के झरते हैं, वैसी चपलता। इऱफान के नेत्रों को बुद्ध की करुणा और रजनीश की चपलता दोनों मिली। लेकिन चंचलता और कोमलता का इतना मीठा मिश्रण कि इऱफान जब किसी को देखते तो लगता कि तीव्र ज्वर में हल्के स्पर्श से माथे पर गरम-पट्टी कर रहे हैं। उनकी आंखों में हमेशा रक्तिम रेशे रहते थे, जैसे दुख ने अपनी रेखाएं खींची हों, फिर भी गौर से देखने पर वे हंसती ही मिलती थीं।
इऱफान (Irfan) को ये फ़ानी-दुनिया छोड़े बरस हुआ। फिर भी मुझे लगता है कि कल की बात है। इऱफान से जुड़ी सारी बातें याद आ रही हैं। किसने क्या कहा था, किसने क्या लिखा था! वरुण ग्रोवर (Varun Grover) ने लिखा था कि कोई मनुष्य जब दुनिया छोड़कर जाता है तो उसके साथ कुछ शब्द भी चले जाते हैं, जिनके अर्थ बस वही समझता है। पर इऱफान जैसा शख़्स इस दुनिया से जाता है तो उसके साथ एक वृहत शब्दकोश चला जाता है। बाबुषा मै’म ने एक बहुत मार्मिक पोस्ट लिखी थी। जावेद साहब ने ट्वीट किया था- ” अभिनेता के तौर पर वह एक ध्वनि थे, किसी की प्रतिध्वनि नहीं। ” सच है। इऱफान एक पहचान थे। फलक का नीला रंग थे। एक लाइव में लेखक पुरुषोत्तम अग्रवाल ने उनके बाबत कुछ बातें की थीं। उनके “लंचबॉक्स” फ़िल्म के एक दृश्य का बड़ी सुंदरता से वर्णन किया था, मुझे उस रोज नया नज़रिया मिला था। विशाल भारद्वाज ने स्क्रीनप्ले लिखा था, जो लल्लनटॉप पर प्रकाशित हुआ था। सब तो याद है मुझे। इऱफान मेरे जीवन की वो स्मृति हैं, जिन्हें सोचकर अपने अंतिम क्षणों में भी आंख में पानी लेकर मुस्कुराऊंगा।