पटना : (Patna) उत्तर प्रदेश में दलितों के दम पर राष्ट्रीय राजनीति में पहचान बनाने वाली बहुजन समाज पार्टी (Bahujan Samaj Party) (BSP) पड़ोसी राज्य बिहार में बड़ी दलित आबादी होने के बावजूद अपनी धाक जमाने में अब तक कामयाब नहीं हो पाई है। पिछले तीन दशकों में बसपा को बिहार में दलितों के लिए आरक्षित सीटों पर केवल तीन ही बार कामयाबी मिली। एक सीट पर दो बार और एक दूसरे सीट पर एक ही बार। जबकि पूरे राज्य में दलितों के लिए आरक्षित सीटों की संख्या वर्तमान में 38 है। साल 2000 के पहले अविभाजित बिहार में यह संख्या 48 थी। इस बार बसपा की ओर से कुल 128 उम्मीदवार मैदान में उतारे गए हैं। बसपा प्रमुख सुश्री मायावती (BSP chief Ms. Mayawati) आगामी 6 नवंबर यानी प्रथम चरण के मतदान के दिन से बिहार में चुनावी प्रचार का आगाज करेंगी। जबकि प्रथम चरण के लिए उनके 80 उम्मीदवार मैदान में हैं। साफ है कि पहले चरण से पहले बसपा चुनाव प्रचार से बाहर ही है।
साल 2023 में बिहार सरकार द्वारा कराए गए जाति सर्वेक्षण की रिपोर्ट कहती है कि उत्तर भारत में राजनीति की प्रयोगशाला कहे जाने वाले बिहार में दलितों यानी अनुसूचित जातियों के लोगों की कुल जनसंख्या 19.65 प्रतिशत है। यदि संख्या के हिसाब से देखें तो यह आंकड़ा कुल 2 करोड़ 56 लाख 89 हजार 820 है। बहुजन समाज पार्टी ने अपने गठन के छह साल बाद साल 1990 के बिहार विधानसभा चुनाव के मैदान में पहली बार कदम रखा। यह वह साल था जब लालू प्रसाद (Lalu Prasad Yadav) बिहार की सत्ता के शीर्ष पर पहुंचे। 1990 के विधानसभा चुनाव में बसपा राज्य के कुल 324 सीटों में से 164 सीटों पर चुनाव लड़ी। यह पहला अवसर था जब किसी राजनीतिक दल ने बिहार में ‘दलित’ पहचान के साथ मोर्चा खोला। हालांकि बसपा के 162 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई। मतों की बात करें तो पहले प्रयास में बसपा को 0.73 प्रतिशत मत मिले। महत्वपूर्ण यह रहा कि नवादा जिले के हिसुआ विधानसभा क्षेत्र से रामानंद यादव (Ramanand Yadav) को 9454 मत मिले थे और वे तीसरे स्थान पर रहे थे।
उल्लेखनीय है कि बिहार का विभाजन 15 नवम्बर, 2000 को हुआ और झारखंड नामक नया राज्य बना। इसके पहले राज्य में विधानसभा की कुल सीटें 324 थीं, जिनमें 247 सामान्य सीटें थीं जबकि 49 अनुसूचित जाति और 28 अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित थीं। पहले प्रयास में मिली असफलता के बावजूद बसपा ने हार नहीं मानी। जब 1995 में विधानसभा के चुनाव हुए तब स्थितियां बदल चुकी थीं। लालू प्रसाद का सामाजिक न्याय पूरे बिहार में जोर पकड़ चुका था। कांशीराम और लालू प्रसाद (Kanshi Ram and Lalu Prasad) के बीच संवाद का सिलसिला प्रारंभ हो चुका था। इसका असर रहा कि 1995 के चुनाव में पहली बार बसपा ने जीत का स्वाद चखा। वह 161 सीटों पर लड़ी, हालांकि 158 सीटों पर उसके उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई, लेकिन उसके 2 उम्मीदवार जीत भी गए। बसपा का मत प्रतिशत भी 0.73 प्रतिशत से बढ़कर 1.34 प्रतिशत हो गया। सबसे खास यह कि उ.प्र.-बिहार की सीमा पर अवस्थित चैनपुर से महाबली सिंह और मोहनिया (अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित) सीट से सुरेश पासी जीते।
साल 2000 के विधानसभा चुनाव में बसपा के पांच उम्मीदवार जीते थे। इस चुनाव में उसने 249 सीटों पर अपने उम्मीदवारों को खड़ा किया। हालांकि 241 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई। लेकिन चैनपुर से महाबली सिंह, मोहनिया (Scheduled Caste) से सुरेश पासी, राजपुर (Scheduled Caste) से छेदी लाल राम, फारबिसगंज से जाकिर हुसैन खान, और धनहा से राजेश सिंह विजयी रहे। इस चुनाव में राजद 293 पर लड़ी और उसके 124 उम्मीदवार जीते।
फरवरी, 2005 में हुए चुनाव में बसपा को हालांकि सीटों की संख्या के लिहाज से कमी आई। इस बार बसपा 238 पर लड़ी और उसके 2 उम्मीदवार जीतने में कामयाब रहे। लेकिन खास बात यह रही कि इस चुनाव में उसे कुल 4.41 प्रतिशत मत मिले थे। यह बसपा को मिले सबसे अधिक वोट थे। इस चुनाव में बसपा के जीतने वालों में गोपालगंज से रेयाजुल हक उर्फ राजू, कटैया से अमरेंद्र कुमार पांडे रहे। खास यह भी कि इस बार बसपा को अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित किसी भी सीट पर जीत नहीं मिली। अक्टूबर-नवंबर 2005 में फिर से चुनाव हुए। इस चुनाव में बसपा 212 पर लड़ी और इसके 4 उम्मीदवार जीते। उसे कुल 4.17 प्रतिशत मत मिले। इसके जीतने वालों में भभुआ से रामचंद्र सिंह यादव, दिनारा से सीता सुंदरी देवी, बक्सर से हृदय नारायण सिंह, कटैया से अमरेंद्र कुमार पांडे शामिल रहे।
2010 में बसपा 239 सीटों पर लड़ी। कुल 236 सीटों पर उसके उम्मीदवारों की जमानत ही केवल जब्त नहीं हुई, बल्कि उसका कोई उम्मीदवार जीत नहीं सका। साथ ही उसके मतों का प्रतिशत भी घटकर 3.21 प्रतिशत रह गया। बसपा का प्रदर्शन 2015 में पूर्व के चुनाव से अधिक विफलता वाला रहा। उसने 228 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे, लेकिन कोई जीत नहीं मिली। उसके 225 उम्मीदवार अपनी जमानत भी नहीं बचा सके। और वोट प्रतिशत घटकर 2.01 प्रतिशत रहा गया। 2020 के विधानसभा चुनाव हुए तो बसपा केवल 78 सीटों पर लड़ी। उसके 73 उम्मीदवार जमानत बचाने में नाकाम रहे। वोटों का प्रतिशत घट कर 1.49 प्रतिशत रह गया। लेकिन उसे इस बात से संतोष मिला कि चैनपुर से उसके उम्मीदवार मोहम्मद जमा खान (Mohammad Jama Khan) जीतने में कामयाब रहे।
राजनीतिक विशलेषक केपी त्रिपाठी के अनुसार, बसपा सुप्रीमो मायावती केवल चुनाव के मौके पर ही बिहार आती हैं। आखिरी बार 2024 में लोकसभा चुनाव के समय वह बक्सर में एक चुनावी जनसभा को संबोधित करने आई थीं। वहीं पिछली बार 2020 में हुए विधानसभा चुनाव में वह केवल पांच चुनावी कार्यक्रमों में शामिल हुई थीं। त्रिपाठी के अनुसार, बिहार में दलितों की बड़ी आबादी होने के बावजूद उनके लिए बसपा के पास कोई एजेंडा नहीं है। कभी वह उनके सवालों को लेकर लोगों के बीच नहीं गईं। यह स्थिति तब है जबकि राज्य में बड़ी संख्या में दलित बसपा को अपनी पार्टी मानते हैं।
