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रोजाना एक कविता: आज पढ़िए युवा कवि अभिजीत सिंह की कविता ‘कितने प्रस्थान’

सूरज
अधूरी आत्महत्या में उड़ेल आया
दिन-भर का चढ़ना
उतरते हुए दृश्य को
सूर्यास्त कह देना कितना तर्कसंगत है
यह संदेहयुक्त है
अस्त होने की परिभाषा में
कितना अस्त हो जाना
दोबारा उभर पाने की सम्भावना बनाये रखता है
यह भी विवादास्पद है
कितनी बार यही बीता है हर बार बनकर
कितना और
इतना बस
और
अंत में

‘वो देखो’ बनकर

फिर आता रहा
सड़क पर पड़े फटे अख़बार पलटता
कहीं उड़ाता हुआ सड़ते माँस की बू
कहीं जलते घी का अर्क उड़ाता हुआ
बताता रहा
यह सवेरा
कितना छोटा शब्द
अपने अर्थ में छिपाए है अधूरी आत्महत्या
फैलती हुई अंगड़ाई छिपाता हुआ
जम्भाई भी
लम्बी दौड़
हाँफता व्यायाम
सूख चुकी लार जैसा संकल्प
इतना छोटा शब्द
छिपा रहा है इतना कुछ
तो कहना पड़ता है
सवेरा झूठ है
फिर आ जाता है अधूरा ही मरकर
तो कहना पड़ता है
मरना भी झूठ है!

इतने आ-जा रहे प्रसंगों में
कहीं लुका-छिपी खेल रहा है मन
जिसे ढूँढने में बीत रहा है जीवन

जैसे सूरज बीत रहा है
अपनी आयु में धीरे-धीरे और फिर एक दिन
अचानक टूटेगा
सौरमण्डल के महान प्रांगण में
उत्सव की तरह नहीं
किलकारी जैसा
तब सोचना होगा किसी को
क्या यह पूरी मृत्यु है
कि बचा रह गया है अर्थ में
कुछ और अख़बारों का पलटे जाना
कुछ दौड़ और हैं बाक़ी
कुछ और छिपना-छिपाना

फिर जब मन पहुँच रहा होगा
उसी अधूरी आत्महत्या की ओर तब सोचना होगा
क्या इस प्रस्थान में भी
छिपा होगा लौटना

फिर बाद के प्रस्थानों में कौन-सा होगा
अंततः किलकारी जैसा
कहाँ होगा कब होने वाली है मृत्यु के
सारे बिन्दुओं का केंद्र

सौरमण्डल के महान प्रांगण जैसा मैं
कब देखूँगा अपने मन का
अचानक टूटना
और अंत में

‘वो देखो’ बन जाना!

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