रोज़ाना एक कविता: जर्रे ज़र्रे में वो है

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आशा पाण्डेय ओझा

फिर घिर आये
याद के बादल
फिर हरिया उठा
पीड़ का पलाश
फिर झरी
मन की छत पर
गीली-चांदनी
ख़्वाबों की
हल्की -हल्की
बयार ने
दुबारा खोली आज
चाहत के दिनों से
जोड़ी हुई
सुरभिमय अहसास की
वो रंग -बिरंगी शीशियां
जो दबा रखी है
मन की तहों के नीचे
सबसें छुपकर मैंने
और शायद
तुमने भी