एक बार भगवान बुद्ध भिक्षा के लिए एक किसान के यहां पहुंचे। किसान ने उपेक्षा से कहा, ए में हल जोतता हूँ, बीज बोता हूं और तब खाता हूं। तुम्हें भी हल जोतना और बीज बोना चाहिए तब खाना चाहिए।’ बुद्ध ने कहा, ‘महाराज! मैं भी खेती ही करता हूं।’ इस पर उस किसान ने जिज्ञासा की, गौतम! मैं न कहीं आपका जुआ देखता हूं, न हल, न बैल और न ही पैनी देखता हूं। तब आप कैसे कहते हैं कि आप भी खेती ही करते हैं। बुद्ध ने कहा, ‘हे मित्र ! मेरे पास श्रद्धा का बीज, तपस्या रूपी वर्षा, प्रज्ञा रूपी जोत और हल हैं। पापभीरुता का दंड है, विचार रूपी रस्सी है। स्मृति, चित्त की जागरुकता रूपी हल की फाल और पैनी है। मैं वचन और कर्म में संयत रहता हूं। मैं अपनी इस खेती को बेकार घास से मुक्त रखता हूं और आनंद की फ़सल काट लेने तक प्रयत्नशील रहने वाला हूं। अप्रमाद मेरा बैल है, जो बाधाएं देखकर भी पीछे मुंह नहीं मोड़ता है। वह मुझे सीधा शांति धाम तक ले जाता है। इस प्रकार मैं अमृत की खेती करता हूं।