
वो एक शख़्स अगर महव-ए-इंतज़ार न हो
सफ़र से आए हुओं में मेरा शुमार न हो
क़ुबूल कर के इसे राब्ता बहाल करो
कहीं ये फूल मेरी आख़िरी पुकार न हो
तेरे जमाल ने सूरज को रौशनी दी है
सो कौन है जो यहाँ तेरा क़र्ज़दार न हो
वो तेग़-ए-चश्म मेरे सामने है और उसका
ख़ुदा करे कि कोई दूसरा शिकार न हो
तमाम रात की बेदारियों से लगता है
हमारा ख़्वाब किसी आँख पर उधार न हो
तो मान लीजिए वो दर उस अप्सरा का नहीं
जहाँ क़तार में शामिल ये ख़ाकसार न हो