Valentine day 2022: मोहब्बत के अंजुमन में डूबे बेहतरीन कलाम

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Valentine day पर आज पेश है इश्क़ का गहरा अहसास लिए 6 बड़े कलाम जिसमें मोहब्बत के हर रंग, हर भाव और हर एहसास को अभिव्यक्त करने वाले शेरों को जमा किया गया है। आप इन्हें पढ़िए और मोहब्बत करने वालों के बीच साझा कीजिए।

रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ

कुछ तो मिरे पिंदार-ए-मोहब्बत का भरम रख
तू भी तो कभी मुझ को मनाने के लिए आ

पहले से मरासिम न सही फिर भी कभी तो
रस्म-ओ-रह-ए-दुनिया ही निभाने के लिए आ

किस किस को बताएँगे जुदाई का सबब हम
तू मुझ से ख़फ़ा है तो ज़माने के लिए आ

इक उम्र से हूँ लज़्ज़त-ए-गिर्या से भी महरूम
ऐ राहत-ए-जाँ मुझ को रुलाने के लिए आ

अब तक दिल-ए-ख़ुश-फ़हम को तुझ से हैं उम्मीदें
ये आख़िरी शमएँ भी बुझाने के लिए आ

  • अहमद फ़राज़

इक हुनर था कमाल था क्या था…
इक हुनर था कमाल था क्या था
मुझ में तेरा जमाल था क्या था

तेरे जाने पे अब के कुछ न कहा
दिल में डर था मलाल था क्या था

बर्क़ ने मुझ को कर दिया रौशन
तेरा अक्स-ए-जलाल था क्या था

हम तक आया तू बहर-ए-लुत्फ़-ओ-करम
तेरा वक़्त-ए-ज़वाल था क्या था

जिस ने तह से मुझे उछाल दिया
डूबने का ख़याल था क्या था

जिस पे दिल सारे अहद भूल गया
भूलने का सवाल था क्या था

तितलियाँ थे हम और क़ज़ा के पास
सुर्ख़ फूलों का जाल था क्या था

  • परवीन शाकिर

उम्र गुज़रेगी इम्तिहान में क्या
दाग़ ही देंगे मुझ को दान में क्या

मेरी हर बात बे-असर ही रही
नक़्स है कुछ मिरे बयान में क्या

मुझ को तो कोई टोकता भी नहीं
यही होता है ख़ानदान में क्या

अपनी महरूमियाँ छुपाते हैं
हम ग़रीबों की आन-बान में क्या

ख़ुद को जाना जुदा ज़माने से
आ गया था मिरे गुमान में क्या

शाम ही से दुकान-ए-दीद है बंद
नहीं नुक़सान तक दुकान में क्या

ऐ मिरे सुब्ह-ओ-शाम-ए-दिल की शफ़क़
तू नहाती है अब भी बान में क्या

बोलते क्यूँ नहीं मिरे हक़ में
आबले पड़ गए ज़बान में क्या

ख़ामुशी कह रही है कान में क्या
आ रहा है मिरे गुमान में क्या

दिल कि आते हैं जिस को ध्यान बहुत
ख़ुद भी आता है अपने ध्यान में क्या

वो मिले तो ये पूछना है मुझे
अब भी हूँ मैं तिरी अमान में क्या

यूँ जो तकता है आसमान को तू
कोई रहता है आसमान में क्या

है नसीम-ए-बहार गर्द-आलूद
ख़ाक उड़ती है उस मकान में क्या

ये मुझे चैन क्यूँ नहीं पड़ता
एक ही शख़्स था जहान में क्या

  • जॉन एलिया

जो अब भी न तकलीफ़ फ़रमाइएगा
तो बस हाथ मलते ही रह जाइएगा

निगाहों से छुप कर कहाँ जाइएगा
जहाँ जाइएगा हमें पाइएगा

मिरा जब बुरा हाल सुन पाइएगा
ख़िरामाँ ख़िरामाँ चले आईएगा

मिटा कर हमें आप पछ्ताइएगा
कमी कोई महसूस फ़रमाइएगा

नहीं खेल नासेह जुनूँ की हक़ीक़त
समझ लीजिएगा तो समझाइएगा

हमें भी ये अब देखना है कि हम पर
कहाँ तक तवज्जोह न फ़रमाइएगा

सितम इश्क़ में आप आसाँ न समझें
तड़प जाइएगा जो तड़पाइएगा

ये दिल है इसे दिल ही बस रहने दीजे
करम कीजिएगा तो पछ्ताइएगा

कहीं चुप रही है ज़बान-ए-मोहब्बत
न फ़रमाइएगा तो फ़रमाइएगा

भुलाना हमारा मुबारक मुबारक
मगर शर्त ये है न याद आईएगा

हमें भी न अब चैन आएगा जब तक
इन आँखों में आँसू न भर लाइएगा

तिरा जज़्बा-ए-शौक़ है बे-हक़ीक़त
ज़रा फिर तो इरशाद फ़रमाइएगा

हमीं जब न होंगे तो क्या रंग-ए-महफ़िल
किसे देख कर आप शरमाइएगा

ये माना कि दे कर हमें रंज-ए-फ़ुर्क़त
मुदावा-ए-फ़ुर्क़त न फ़रमाइएगा

मोहब्बत मोहब्बत ही रहती है लेकिन
कहाँ तक तबीअत को बहलाइएगा

न होगा हमारा ही आग़ोश ख़ाली
कुछ अपना भी पहलू तही पाइएगा

जुनूँ की ‘जिगर’ कोई हद भी है आख़िर
कहाँ तक किसी पर सितम ढाइएगा

  • जिगर मुरादाबादी

चुपके चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है
हम को अब तक आशिक़ी का वो ज़माना याद है

बा-हज़ाराँ इज़्तिराब ओ सद-हज़ाराँ इश्तियाक़
तुझ से वो पहले-पहल दिल का लगाना याद है

बार बार उठना उसी जानिब निगाह-ए-शौक़ का
और तिरा ग़ुर्फ़े से वो आँखें लड़ाना याद है

तुझ से कुछ मिलते ही वो बेबाक हो जाना मिरा
और तिरा दाँतों में वो उँगली दबाना याद है

खींच लेना वो मिरा पर्दे का कोना दफ़अ’तन
और दुपट्टे से तिरा वो मुँह छुपाना याद है

जान कर सोता तुझे वो क़स्द-ए-पा-बोसी मिरा
और तिरा ठुकरा के सर वो मुस्कुराना याद है

तुझ को जब तन्हा कभी पाना तो अज़-राह-ए-लिहाज़
हाल-ए-दिल बातों ही बातों में जताना याद है

जब सिवा मेरे तुम्हारा कोई दीवाना न था
सच कहो कुछ तुम को भी वो कार-ख़ाना याद है

ग़ैर की नज़रों से बच कर सब की मर्ज़ी के ख़िलाफ़
वो तिरा चोरी-छुपे रातों को आना याद है

आ गया गर वस्ल की शब भी कहीं ज़िक्र-ए-फ़िराक़
वो तिरा रो रो के मुझ को भी रुलाना याद है

दोपहर की धूप में मेरे बुलाने के लिए
वो तिरा कोठे पे नंगे पाँव आना याद है

आज तक नज़रों में है वो सोहबत-ए-राज़-ओ-नियाज़
अपना जाना याद है तेरा बुलाना याद है

मीठी मीठी छेड़ कर बातें निराली प्यार की
ज़िक्र दुश्मन का वो बातों में उड़ाना याद है

देखना मुझ को जो बरगश्ता तो सौ सौ नाज़ से
जब मना लेना तो फिर ख़ुद रूठ जाना याद है

चोरी चोरी हम से तुम आ कर मिले थे जिस जगह
मुद्दतें गुज़रीं पर अब तक वो ठिकाना याद है

शौक़ में मेहंदी के वो बे-दस्त-ओ-पा होना तिरा
और मिरा वो छेड़ना वो गुदगुदाना याद है

बावजूद-ए-इद्दिया-ए-इत्तिक़ा ‘हसरत’ मुझे
आज तक अहद-ए-हवस का वो फ़साना याद है

  • हसरत मोहानी

ये ज़ुल्फ़ अगर खुल के बिखर जाए तो अच्छा
इस रात की तक़दीर सँवर जाए तो अच्छा

जिस तरह से थोड़ी सी तिरे साथ कटी है
बाक़ी भी उसी तरह गुज़र जाए तो अच्छा

दुनिया की निगाहों में भला क्या है बुरा क्या
ये बोझ अगर दिल से उतर जाए तो अच्छा

वैसे तो तुम्हीं ने मुझे बरबाद किया है
इल्ज़ाम किसी और के सर जाए तो अच्छा

  • साहिर लुधियानवी