
प्रेम को जो चीज़ सुंदर बनाती है, वह है प्रेमपत्र। आज सरगोशियां में हम लेकर आये हैं ऐसे ही बेहतरीन प्रेमपत्र जो साहित्य में हमेशा के लिए अमर हो चुके हैं। इन खतों में एक मीठी सी कशिश है, जो प्रेम के हर पहलू को बयां करती है। ये प्रेमपत्र साहित्य की वो जमा-पूंजी हैं जो इतिहास की एक अलमारी में भले ही कैद हो लेकिन जब भी जिक्र होता है प्रेम का, ये आ जाते हैं हमारे पास अपने दौर की दास्तां सुनाने। आज वैलेंटाइन डे पर पढ़िए ऐसे ही प्रेमपत्र।
जर्मनी का यहूदी लेखक फ्रांज काफ्का का अपनी प्रेमिका मिलेना के नाम लिखा खत पढ़िए:
प्रिये मिलेना,
तुम्हारे सबसे सुंदर पत्र वे हैं जिनमें तुम मेरे डर से सहमत हो और साथ ही यह समझाने की कोशिश करती हो कि तुम मेरे लिए प्रयास करती हो कि मेरे लिए डर का कोई कारण नहीं है (मेरे लिए यह बहुत कुछ है क्योंकि कुल मिलाकर तुम्हारे पत्र और उनकी प्रत्येक पंक्ति मेरे जीवन का सबसे सुंदर हासिल है) शायद तुम्हें कभी-कभी लगता हो जैसे मैं अपने डर को खुद ही पाल रहा हूं पर तुम ये भी मानोगी कि ये डर मुझमें बहुत गहराई तक बस चुका है। शायद यही मेरा वह एकमात्र रूप है जिसे तुम प्यार करती हो क्योंकि मुझमें प्यार के काबिल और क्या मिलेगा? सच है इंसान को किसी को प्यार करना है तो उसकी कमजोरियों को भी खूब प्यार करना चाहिए। तुम यह बात जानती हो, इसीलिए मैं तुम्हारी हर बात का कायल हूं। तुम्हारा होना मेरी जिंदगी में क्या मायने रखता है यह बता पाना मेरे लिए संभव नहीं है।
तुम्हारा काफ्का
विष्णु प्रभाकर को तो आप जानते ही हैं। शरद चंद्र के जीवन को ‘आवारा मसीहा’ के रूप में अमर कर देने वाले विष्णु प्रभाकर द्वारा अपनी पत्नी सुशीला के नाम लिखा यह प्रेमपत्र आंखें गीला कर जाती हैं।
मेरी रानी,
तुम अपने घर पहुंच गयी होगी। तुम्हें रह-रहकर अपने मां-बाप, अपनी बहन से मिलने की खुशी हो रही होगी, लेकिन मेरी रानी, मेरा जी भरा आ रहा है। आंसू रास्ता देख रहे हैं। इस सूने आंगन में मैं अकेला बैठा हूं। ग्यारह दिन में घर की क्या हालत हुई है, वह देखते ही बनती है। कमरे में एक-एक अंगुल गर्दा जमा है। किताबें बिखरी पड़ी हैं। अभी-अभी कपड़े संभालकर तुम्हें ख़त लिखने बैठना हूं, लेकिन कलम चलती ही नहीं। दो शब्द लिखता हूं और मन उमड़ पड़ता है काश… कि तुम मेरे कंधे पर सिर रक्खे बैठी होतीं और मैं लिखता चला जाता… पन्ने दर पन्ने। प्रिये, मैं चाहता हूं कि तुम्हें भूल जाऊं। समझूं तुम बहुत बदसूरत, फूहड़ और शरारती लड़की हो। मेरा तुम्हारा कोई संबंध नहीं। लेकिन विद्रोह तो और भी आसक्ति पैदा करता है। तब क्या करूं? मुझे डर लगता है। मुझे उबार लो।
बहुत सारे प्यार के साथ,
तुम्हारा ही
विष्णु
प्रसिद्ध शायर मजाज की बहन सफिया का मशहूर शायर और गीतकार जावेद अख्तर के पिता जां निसार अख्तर के नाम लिखा एक मीठी सी कशिश दे जाती है।
अख्तर मेरे,
कब तुम्हारी मुस्कुराहट की दमक मेरे चेहरे पर आ सकेगी, बताओ तो? बाज लम्हों में तो अपनी बाहें तुम्हारे गिर्द समेट कर तुमसे इस तरह चिपट जाने की ख्वाहिश होती है कि तुम चाहो भी तो मुझे छुड़ा न सको। तुम्हारी एक निगाह मेरी जिंदगी में उजाला कर देती है। सोचो तो, कितनी बदहाल थी मेरी जिंदगी जब तुमने उसे संभाला। कितनी बंजर और कैसी बेमानी और तल्ख थी मेरी जिंदगी, जब तुम उसमें दाखिल हुए। मुझे उन गुज़रे हुए दिनों के बारे में सोचकर गम होता है जो हम दोनों ने अलीगढ़ में एक-दूसरे की शिरकत से महरूम रहकर गुज़ार दिए। आओ, मैं तुम्हारे सीने पर सिर रखकर दुनिया को मगरूर नजरों से देख सकूंगी।
तुम्हारी अपनी
सफिया
अमृता-इमरोज के इन खतों को पढ़कर प्यार की संभावनाओं पर शोध करने को जी चाहता है। ऐसा महसूस होता है जैसे हर खिड़की-दरवाजे से प्यार दस्तक दे रहा है और हम ही कहीं परिभाषाओं में बंधे, परदों में छिपे बैठे हैं।
और अंत में उनका प्रेमपत्र जिन्हें मोहब्बत ने खुद चुना था यानि अमृता-इमरोज। अमृता और इमरोज़ का प्रेम जमाने से अलहदा था। इश्क की पहले से खिंची लकीरों से जुदा था और साथ ही जुदा थे उनके इजहारे इश्क का अंदाज। पढ़िए अमृता प्रीतम का प्रेमपत्र
इमरोज़
तुम्हारे और मेरे नसीब में बहुत फर्क है। तुम वह खुशनसीब इंसान हो, जिसे तुमने मुहब्बत की, उसने तुम्हारे एक इशारे पर सारी दुनिया वार दी। पर मैं वह बदनसीब इंसान हूं जिसे मैंने मुहब्बत की , उसने मेरे लिए अपने घर का दरवाजा बंद कर लिया। दु:खों ने अब मेरे दिल की उम्र बहुत बड़ी कर दी। अब मेरा दिल उम्मीद के किसी खिलौने के साथ नहीं खेल सकता।
-अमृता
जवाब मेंअमृता को प्यार से जीती कहने वाले इमरोज लिखते हैं-
जीती,
तुम जिन्दगी से रूठी हुई हो. मेरी भूल की इतनी सजा नहीं, आशी। यह बहुत ज्यादा है। यह दस साल का वनवास। नहीं-नहीं मेरे साथ ऐसे न करो। मुझे आबाद करके वीरान मत करो।
वह मेज, वह दराज, वे रंगों की शीशियां, उसी तरह रोज उस स्पर्श का इंतजार करते हैं, जो उन्हें प्यार करती थी और इनकी चमक बनती थी। वह ब्रश, वे रंग अभी भी उस चेहरे को, उस माथे को तलाश करते हैं, उसका इंतजार करते हैं जिसके माथे का यह सिंगार बनकर ताजा रहते थे, नहीं तो अब तक सूख गए होते। तुम्हारे इंतजार का पानी डालकर मैं जिन्हें सूखने नहीं दे रहा हूं पर इनकी ताजगी तुम्हारे साथ से ही है, तुम जानती हो। मैं भी तुम्हारा इंतजार कर रहा हूं, रंगों में भी जिंदगी में भी।
तुम्हारा
इमरोज