डॉ. ओम नागर की कविताएं जीवन की गहन अनुभूति से बुनी हैं। उनकी कविताओं में लोकजीवन की कई छवियां मौजूद है। गद्य और काव्य का ताना बाना इसे विशेष बनाता है। उनकी अब तक हिन्दी, राजस्थानी और अनुवाद की आठ पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। अपनी कविताओं में उन्होंने बेरोजगारी की विज्ञप्तियों, विस्थापन की विज्ञप्तियों, पर्यावरणीय विज्ञप्तियों, छोटी होती कृषि योग्य जोतों की विज्ञप्तियों तथा राजनीतिक दृष्टि से हताश तथा बेचैन करती विज्ञप्तियों पर शाब्दिक प्रहार किया है। आइए उनके जन्मोत्सव पर आज इंडिया ग्राउंड रिपोर्ट की ‘रोजाना एक कविता’ श्रृंखला में हम पढ़ते हैं उनकी कुछ चुनिंदा कविताएं।

पिता की वर्णमाला
पिता के लिए काला अक्षर भैंस बराबर।
पिता नहीं गए कभी स्कूल
जो सीख पाते दुनिया की वर्णमाला।
पिता ने कभी नहीं किया
काली स्लेट पर
जोड़-बाक़ी, गुणा-भाग
पिता आज भी नहीं उलझना चाहते
किसी भी गणितीय आंकड़े में।
किसी भी वर्णमाला का कोई अक्षर कभी
घर बैठे परेशान करने नहीं आया
पिता को।
पिता
बचपन से बोते आ रहे हैं
हल चलाते हुए
स्याह धरती की कोख में शब्द-बीज
जीवन में कई बार देखी है पिता ने
खेत में उगती हुई पंक्तिबद्ध वर्णमाला।
पिता की बारखड़ी
आषाढ़ के आगमन से होती है शुरू
चैत्र के चुकतारे के बाद
चन्द बोरियों या बण्डे में भरी पड़ी रहती है
शेष बची हुई वर्णमाला
साल भर इसी वर्णमाला के शब्द-बीज
भरते आ रहे हैं हमारा पेट।
पिता ने कभी नहीं बोयी गणित
वरना हर साल यूँ ही
आखा-तीज के आसपास
साहूकार की बही पर अँगूठा चस्पा कर
अनमने से कभी घर नहीं लौटते पिता।
आज भी पिता के लिए
काला अक्षर भैंस बराबर ही है
मेरी सारी कविताओं के शब्द-युग्म
नहीं बाँध सकते पिता की सादगी।
पिता आज भी बो रहे है शब्द-बीज
पिता आज भी काट रहे हैं वर्णमाला
बारखड़ी आज भी खड़ी है
हाथ बाँधे पिता के समक्ष।
भूख का अधिनियम
शायद किसी भी भाषा के शब्दकोश में
अपनी पूरी भयावहता के साथ
मौजूद रहने वाला शब्द है भूख
जीवन में कई-कई बार
पूर्ण विराम की तलाश में
कौमाओं के अवरोध नही फलाँग पाती भूख।
पूरे विस्मय के साथ
समय के कण्ठ में
अर्द्धचन्द्राकार झूलती रहती है
कभी न उतारे जा सकने वाले गहनों की तरह।
छोटी-बड़ी मात्राओं से उकतायी
भूख की बारहखड़ी
हर पल गढ़ती है जीवन का व्याकरण।
आख़िरी साँस तक फड़फड़ाते हैं
भूख के पंख
कठफोड़े की लहूलुहान सख़्त चोंच
अनथक टीचती रहती है
समय का काठ।
भूख के पंजों में जकड़ी यह पृथ्वी
अपनी ही परिधि में
सरकती हुई
लौट आती है आरम्भ पर
जहाँ भूख की बदौलत
बह रही होती है एक नदी।
गाँव इन दिनों
गाँव इन दिनों
दस बीघा लहुसन को ज़िन्दा रखने के लिए
हज़ार फीट गहरे खुदवा रहा है ट्यूवैल
निचोड़ लेना चाहता है
धरती के पेंदे में बचा रह गया
शेष अमृत
क्योंकि मनुष्य के बचे रहने के लिए
ज़रूरी हो गया है
फ़सलों का बचे रहना।
फ़सल जिसे बमुश्किल
पहुँचाया जा रहा है रसायनिक खाद के बूते
घुटनों तक
धरती भी भूलती जा रही है शनैः-शनैः
असल तासीर
और हमने भी बिसरा दिया है
गोबर-कूड़ा-करकट का समुच्चय।
गाँव, इन दिनों
किसी न किसी बैंक की क्रेडिट पर है
बैंक में खातों के साथ
चस्पा कर दी गई है खेतों की नक़लें
बहुत आसान हो गया है अब
गिरवी होना।
शायद, इसीलिए गाँव इन दिनों
ओढ़े बैठा है मरघट-सी ख़ामोशी
और ज़िन्दगी से थक चुके किसान की गर्म राख
हवा के झौंके के साथ
उड़ी जा रही है
राजधानी की ओर…
फेसबुक पर
फेसबुक पर रोज नये-नये चेहरों के साथ
प्रकट होते हो तुम
कल तुम्हारे जिस चेहरे को ‘लाइक’ किया था मैनें
आज नये चेहरे पर ताजा टिप्पणी की दरकार है तुम्हें
कितना संभव हो रोज बदल जाने वाले तुम्हारे
मुखौटों की तरह
तुम्हारा प्रोफाइल भी बनावटी है।
फेसबुक पर बड़ी आसानी से लम्बी हो जाती है
चाहे अनचाहे दोस्त की फेहरिस्त
जैसे-जैसे संख्या में होता है इजाफा
वैसे-वैसे बढ़ता प्रतीत होता है अपने असर का दायरा
कभी-कभार इस दायरे की चादर में
उभर आये अनचाही सलवटे
तो एक क्लिक में किया जा सकता है अनफ्रेंड
सबके लिये भेजी जा सकती है फ्रेंडशिप रिक्वेस्ट
सबको देखते हुए खुद किया जा सकता है अनदेखा।
फेसबुक पर सबको देखा जा सकता है
तथागत की तरह निर्लिप्त/
या देवताओं की तरह मंथन की मुद्रा में
मौसम के अनुरूप चल रही होती है अविराम बहसें
बधाई और शुभकामनाओं की आवाजाही
आम बात है फेसबुक पर।
रोज-रोज बदल जाने वाले मुखौटों में से
किसी एक को एक्सेप्ट कर लेने के वास्ते /
कहीं बार याद रख लेने की कोशिशों के बीच
हर बार भूलता रहा तुम्हारा जन्मदिवस
फेसबुक ने ये झंझट तो खत्म ही कर दिया
कि जिनका जन्मदिवस होता है
अपने-आप उभर आता है उनका नाम और प्रोफाइल फोटो
चटक रंगों के साथ
मेरी फेसबुक के कोने पर।
चेहरों की किताब के पृष्ठों पर
बिखरी पड़ी रहती है हंसी
असली या बनावटी-जैसी भी हो
रिश्तो का रोज नया समुच्च बनता है यहां
असली या बनावटी-जैसा भी हो
संवेदनाओं से भरी होती है लोगों की वॉल
असली या बनावटी-जैसी भी हो।
लोगों की टिप्पणियां देती है हौसलों को आसमान
असली या बनावटी-जैसा भी हो
‘‘फेसबुक’’ भी रचती है सपनों का संसार
असली या बनावटी-जैसा भी हो
कौन कहता है
‘‘वर्चुअल’’ दुनिया ‘‘रियल’’ नहीं होती सायबर संसार में
समय के साथ
कुछ चीजें नही रहती समय के साथ
बदल लेती है अपनी सूरत और स्वभाव।
जैसे किसी भी किसान के हाथों में
नहीं नजर आती अब अलसुबह से शाम तक
बंजर खेत की जुताई के दौरान
कील लगी बांस की लकड़ी/परानिया
और ना ही कमजोर बैल के पुट्ठों पर
बचा है अब इतना मांस
जो अनदेखी कर दे दर्द की पराकाष्ठा
बढ़ाता चला जाएं अपनी रफ्तार
वैसे भी कितने कुछ रह गये है अब बैल
धरती को आहिस्ता-आहिस्ता जोतने के लिए
गडारों की धूल से उकतायें
खंडित बैलगाड़ी के पहियें
कबाड़ की शक्ल में पड़े है
गांव के बाहर पगडंडी के समीप
जो कभी-कभार याद दिला देते हो शायद
कुरूक्षेत्र मेें लड़े किसी विकट योद्धा की।
और तो और थान के थान दिखने वाले खेत
समय के साथ तब्दील हो गये है
छोटें-छोटें रूमालों की शक्ल मेें
कुछ बीघा-बिसवों में
पटवारी के बस्ते में बंद खेतों की नकलंे
बढ़ा रही है किसी न किसी बैंक का ग्राफ
सही है कुछ चीजें नही रहती समय के साथ
बदल लेती है अपनी उपयोगिता व स्थान।
जैसे बीते बैसाख के अंधड़ ने
बूंढ़े बरगद की वो डाली भी ला पटकी जमीन पर
जिस डाली पर गुजरी सदी के प्रारंभ में
सत्ता-मद में चूर एक राजा ने
मुक्ति के आकांक्षी एक बागी को
लटकवा दिया था सबके समक्ष
फांसी के फंदे पर।
अब तो वो बरगद भी नहीं रहा
गांव के बीचों-बीच
हालांकिे वो राजा, वो हुकुमत भी नहीं रही अब
जिसके अट्ठाहस में दबी रह गई
कईयों की सिसकियां/रूदन/किलकारियां
आज उस जगह खड़ा हो रहा है पंचायत भवन
और बरगद की परछाई तक लगी है
महानरेगा की मस्टरोल में नाम तलाशतें
युवाओं की लंबी कतार।