
मुझे तुम तन्हा मत समझना
बस भीड़ से डर लगने लगा है
मुझे तू ग़ैर मत समझना
बस अपनों से डर लगने लगा है।
ख़्वाब-उम्मीद सब हैं मेरे जिगर में
बस सपनों से डर लगने लगा है।
वो दौर कुछ और था, वो ज़िंदगी कुछ और थी
ऐसे माहौल में बस सोचने से डर लगने लगा है।
तू मेरी बातों से प्रभावित मत हो
आजकल बातों को कहने से डर लगने लगा है।
सच की परिभाषा कौन समझाए मुझे
हर सच्चाई से डर लगने लगा है।
पुराने किस्सों को कब तक लगा रखें सीने में
कि अब हर नई कहानी से डर लगने लगा है।
आज तू मुझे पहचानने की गुस्ताखी मत कर
मुझे पहचान मिटने से डर लगने लगा है।
चल एक नए अध्याय लिखते हैं
तू बस मत बोल कि शुरू करने में डर लगने लगा है।
ज़िंदगी क्या है बस एक कोशिश
यक़ीन है मुझे कि हवाओं का रुख मुड़ने लगा है।
देख मेरे टूटे हुए अक्षरों को
कि अब तो जाहिल भी उसे पढ़ने लगा है।
ये दौर एक नया इतिहास लिखेगा
क्योंकि लगता है कि ये दौर अब बदलने लगा है।
आओ चलो कुछ बात करते हैं
कुछ तुम्हारी कुछ हमारी करते हैं
हां मानते हैं कि मौत मंडरा रही है हवाओं में
हां मानते हैं कुछ कमी है इंसानों में
पर आओ उन वीरों की कहानी सुनते हैं
जो मरीज़ों को घर भेजकर ही मानते हैं! !
जो मरते भी हैं और लड़ते भी
जो आंसू बहाते भी हैं और पोंछते भी!!
आओ चलो कुछ बात करते हैं
कुछ तुम्हारी कुछ हमारी करते हैं!!
माना कि जीने और मरने का ठिकाना नहीं
पर आओ उन जज़्बातों को सलाम करते हैं
जो ऑक्सिजन का लंगर लगाते हैं
जो दवाईयों को समय पर पहुंचाते हैं
जो ज़िंदगी को जीना सिखाते हैं
जो बाहर निकलकर तुम्हारी जान बचाते हैं!!
चलो कुछ सुनते हैं सुनाते हैं
जितना हो सके प्यार बांटते हैं
आओ चलो कुछ बात करते हैं!!
3.
समय लगेगा
सब बदलने में समय लग़ेगा
ये दौर गुज़रने में समय लग़ेगा।
ये सब जो उथल-पुथल है आस-पास।
ऐसे में मन को संभालने में समय लग़ेगा।
ये अंधेरा ज़रूर ढलेगा
इस मौत के क़हर से तू ज़रूर बचेगा।
सारे दरवाज़े बंद हुए तो क्या हुआ
वो रोशनी का दरवाज़ा ज़रूर खुलेगा।
थोड़ा सब्र करो यारो, हम सब फिर हंसेंगे
जिएंगे, खेलेंगे और मिलेंगे
बस, थोड़ा समय लग़ेगा।
आंखें खोलो और सच बोलो
अगर देश नहीं ज़ल रहा है, तो मत बोलो
अगर यहां खून नहीं हो रहा है, तो मत बोलो।
अगर लाशों के ढेर नहीं लग रहे हैं, तो मत बोलो
अगर मजबूरों को लूट नहीं रहे हैं, तो मत बोलो।
अगर तुम्हारी कहानी मेरी कहानी नहीं, तो मत बोलो।।
अगर ये मौत का क़हर नहीं है, तो मत बोलो,
अगर ये दहशत नहीं है, तो मत बोलो,
अगर ये अंधेरा नहीं है, तो मत बोलो।।
पर अगर थोड़ी-सी भी सच्चाई बाक़ी है,
तेरी आंखों में, तेरे दिल में, तेरे मस्तिष्क में,
तेरी रूह में, तेरे ज़िस्म में, तो मेरे दोस्त
सर उठा के सच बोलो-सच बोलो।।
5.
लकीरें
मेरे हाथ की लकीरें
टेढ़ीं-मेढ़ीं-उलझीं-उलझीं
इधर भागतीं, उधर फिरतीं
मेरे ख्यालों की तरह।
कहीं से शुरू होकर
कहीं भी रुक जातीं
मिल जाती हैं कहीं किसी और में
नासमझ मेरे हाथ की लकीरें
मेरे ख्यालों की तरह।
करतीं हैं बदमाशियां
बीच रास्ते रुक जाती हैं
अकड़ दिखातीं हैं मुझे
मेरे लाख बोलने पर भी नहीं सुनतीं
मेरे हाथ की लकीरें
मेरे ख्यालों की तरह।
छुपे हुए कई राज हैं इनमें
अनजान रहस्यों की तरह
जितना खोजूं उतनी गहरी हो जाती हैं
मेरे हाथ की लकीरें
मेरे ख्यालों की तरह।

परोमा भट्टाचार्य
बांग्ला रंगमंच की एक जानी-मानी अभिनेत्री हैं। बांग्ला और हिंदी में कविताएं लिखती हैं। मन की कोमल भावनाओं की सटीक और अचूक अभिव्यक्ति आपकी कविताओं की अन्यतम विशेषता है। आपके सरोकारों के केन्द्र में महिला सशक्तिकरण और साम्प्रदायिक सद्भाव प्रमुख हैं।