मन्दिर तुम्हारा है
देवता हैं किस के?
प्रणति तुम्हारी है
फूल झरे किस के?
नहीं, नहीं, मैं झरा, मैं झुका,
मैं ही तो मन्दिर हूँ,
ओ देवता! तुम्हारा।
वहाँ, भीतर, पीठिका पर टिके
प्रसाद से भरे तुम्हारे हाथ
और मैं यहाँ देहरी के बाहर ही
सारा रीत गया।
कवि: सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन “अज्ञेय”