Mumbai : ‘मैं फिल्में कम करता हूं लेकिन वो करता हूं जो लोगों के दिल को छू जाए’ : आमिर खान

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मुंबई : (Mumbai) हिंदी सिनेमा के मिस्टर परफेक्शनिस्ट आमिर खान (Mr. Perfectionist of Hindi cinema, Aamir Khan) एक बार फिर एक खास फिल्म के साथ दर्शकों के सामने लौट रहे हैं। साल 2007 में आई अपनी क्लासिक फिल्म ‘तारे ज़मीन पर ’(Taare Zameen Par) के सीक्वल ‘सितारे ज़मीन पर’ को लेकर आमिर एक बार फिर चर्चा में हैं। यह बहुप्रतीक्षित फिल्म 20 जून को सिनेमाघरों में रिलीज होने जा रही है। इस खास मौके पर आमिर खान ने ‘हिन्दुस्थान समाचार’ (‘Hindustan Samachar’),को एक एक्सक्लूसिव इंटरव्यू दिया, जिसमें उन्होंने न केवल इस फिल्म के सफर के बारे में विस्तार से बात की, बल्कि अपने करियर और हिंदी फिल्म इंडस्ट्री को लेकर भी कई बेबाक बातें शेयर कीं। आमिर का कहना है कि ‘सितारे ज़मीन पर’ उनके दिल के बेहद करीब है और यह फिल्म भी दर्शकों के दिलों को छूने वाली कहानी लेकर आएगी, ठीक वैसे ही जैसे पहली फिल्म ने किया था।

फिल्म में न्यूरो डाइवरजेंट (neurodivergent children) बच्चों के साथ काम करना यकीनन एक अनोखा अनुभव रहा होगा। यह अनुभव आपके लिए कैसा रहा?

मैं पूरे दावे के साथ कह सकता हूं कि जितना वक्त हमें आमतौर पर न्यूरोटिपिकल व्यक्तियों के साथ काम करने में लगता है, उतना ही, या कई बार उससे भी कम वक्त हमें न्यूरोडाइवर्जेंट बच्चों के साथ काम करने में लगा। ये मैं कोई भावुक बात नहीं, बल्कि तथ्य के तौर पर कह रहा हूं। शूटिंग के दौरान अक्सर किसी न किसी वजह से रीटेक्स होते थे, कभी मेरी वजह से, कभी जेनेलिया की वजह से, और कभी बच्चों की वजह से। लेकिन सच कहूं तो, इन बच्चों की वजह से शूटिंग में कभी कोई बड़ा डिले नहीं हुआ। मैंने उनके साथ समय बिताया, उन्हें समझा और महसूस किया कि उनमें और मेरे जज़्बातों में कोई फर्क नहीं है। इस अनुभव ने मुझे उनके प्रति और भी ज्यादा संवेदनशील बना दिया। यह मेरे लिए एक गहरी सीख थी, जो शायद किसी किताब में नहीं मिलती।

आपकी फिल्मों में अक्सर किसी न किसी खेल की अहम भूमिका रही है। ‘लगान’ का क्रिकेट, ‘दंगल’ की कुश्ती, ‘जो जीता वही सिकंदर’ की साइकिल रेस। क्या ये कह सकते हैं कि आपकी फिल्मों में स्पोर्ट्स आपके लिए लकी रहा है?”

हां, आपने बिल्कुल ठीक पकड़ा। मेरी फिल्मों में अक्सर कोई न कोई स्पोर्ट्स एंगल जरूर रहा है और वो मेरे लिए काफी लकी भी साबित हुआ है। मैंने ‘गुलाम’ में बॉक्सिंग की थी, जबकि ‘अव्वल नंबर’ में मैं क्रिकेटर बना था। हालांकि, ‘अव्वल नंबर’ मेरे लिए थोड़ी अनलकी साबित हुई (हंसते हुए), क्योंकि वो फिल्म चली नहीं थी। कुल मिलाकर, स्पोर्ट्स का मेरी कहानियों से खास रिश्ता रहा है, और मुझे लगता है कि ये जुड़ाव हमेशा कुछ ना कुछ इमोशनल कनेक्ट लेकर आता है।

आपकी 45 फिल्मों में से अधिकतर यादगार बन चुकी हैं। लेकिन क्या कभी मन में ये ख्याल आता है कि आप और ज़्यादा फिल्में कर सकते थे?

देखिए, सौ सोनार की, एक लोहार की, अब यही है मेरा साफ़ जवाब। मुझे इस बात से कोई परेशानी नहीं है कि मैं कम फिल्में करता हूं। मेरे लिए हमेशा संख्या नहीं, बल्कि गुणवत्ता मायने रखती है। मैं चाहता हूं कि जब भी कोई काम करूं, वो ऐसा हो जो लोगों के दिल तक पहुंचे। इसलिए मैं हमेशा क्वालिटी पर फोकस करता हूं, ना कि इस बात पर कि कितनी फिल्में की।

फिल्म की रिलीज से पहले कोई ऐसा धार्मिक या निजी रिवाज है जिसे आप निभाना कभी नहीं भूलते?

हां, मैं ईश्वर में गहरी आस्था रखता हूं और उनकी शक्ति में पूरा विश्वास है। लेकिन मैं अपनी धार्मिक आस्था को सार्वजनिक तौर पर प्रदर्शित करना पसंद नहीं करता। मेरे लिए धर्म एक निजी अनुभव है, जिसे मैं अपनी तरह से, निजी रूप से निभाता हूं। हर इंसान का अपने विश्वास को जीने का तरीका अलग होता है, कुछ लोग इसे खुलकर जाहिर करते हैं, तो कुछ मेरी तरह इसे निजी रखना पसंद करते हैं।

ऐसा क्यों होता है कि हमारे यहां इतना बड़ा दर्शक वर्ग होने के बावजूद बच्चों के लिए अच्छी फिल्में उतनी नहीं बनाई जाती?

मैं आपकी बात से पूरी तरह सहमत हूं, क्योंकि वाकई हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में बच्चों पर बहुत कम फिल्में बनती हैं, और ये वाकई दुखद है। मुझे लगता है कि इंडस्ट्री को ये गलतफहमी है कि हमारे यहां बच्चों की फिल्मों का कोई मार्केट नहीं है। लेकिन मैं ऐसा नहीं मानता। अगर भारत के बच्चे डिज़्नी और बाहर के कंटेंट को देख सकते हैं, तो यकीनन यहां भी मार्केट है, बस जरूरत है सही कंटेंट बनाने की। मेरे हिसाब से किसी भी क्रिएटिव इंसान का सबसे महान काम यही हो सकता है कि वो बच्चों के लिए फिल्म बनाए। एक भारतीय नागरिक होने के नाते हमारी जिम्मेदारी बनती है कि हम अपने बच्चों को भारतीय संस्कृति और मूल्यों से जुड़ा कंटेंट दिखाएं। क्योंकि अब तक जो कंटेंट हम बच्चों को दिखा रहे हैं वो बाहर का है जिसे यहां डब करके दिखाया जा रहा है। हमें बच्चों की दुनिया को समझना और उसे सिनेमा के ज़रिए सम्मान देना बेहद ज़रूरी है।

शूटिंग सेट पर 8 घंटे काम को लेकर काफी चर्चा है। इस पर आप क्या कहेंगे?

देखिए, आदर्श स्थिति तो यही है कि हम सभी दिन में 8 घंटे ही काम करें। ज़िंदगी में बैलेंस होना बहुत ज़रूरी है। लेकिन आज की दुनिया इतनी तेज़ रफ्तार से चल रही है और हम सब कुछ झटपट हासिल करना चाहते हैं, जिसकी वजह से काम के घंटे भी लगातार बढ़ रहे हैं। मुझे याद है, एक वक्त था जब मैं दिन में 16-16 घंटे तक काम करता था, क्योंकि वो मेरा पैशन था। लेकिन पिछले 3-4 सालों में मैंने खुद को बदलने की कोशिश की है। अब मैं कोशिश करता हूं कि परिवार के साथ ज्यादा वक्त बिताऊं और ज़िंदगी को थोड़ा धीरे, सुकून से जी सकूं।