
मुंबई. एक सेठ था। दिल का उदार और दिल का राजा भी। उसके पास क्या नहीं था — कारें, बंगले और बड़ा कारोबार। वह एक आलीशान बंगले में रहता था। उस दिन वह एक संत को अपना बंगला दिखाने लाया।
संत अलमस्त थे और सेठ बहंक गया और अपने बड़प्पन की डींगें हांकने में व्यस्त हो गया। संत को उसकी हर बात में अहम् की बू आ रही थी। संत ने उसकी ‘मैं मैं’ की महामारी मिटाने के उद्देश्य से दीवार पर टंगे मानचित्र को दिखाते हुए पूछा, ‘इसमें तुम्हारा शहर कौन-सा है ?
सेठ ने मानचित्र पर एक बिन्दु पर उंगली टिकाई। संत ने विस्मय से पूछा, ‘इतने बड़े मानचित्र पर तुम्हारा शहर बस इतना-सा ही है! और क्या तुम इस नक्शे में अपना बंगला बता सकते हो?’ उसने जवाब दिया, ‘मेरा बंगला इस पर कहां दिखता है? वह तो ऊंट के मुंह में जीरे के बराबर है। ‘
तो फिर अभिमान क्यों? संत ने पूछा शर्मिंदगी के मारे सेठ का सिर झुक गया। वह समझ गया कि नक्शे में उसका नामोनिशान नहीं है, फिर वह क्यों फूला फिर रहा है?