
एक बार कुछ अंग्रेज शिक्षाविद् बनारस आए। उन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय देखने की इच्छा जाहिर की। मालवीयजी ने उन्हें विश्वविद्यालय को एक-एक इमारत बड़े मनोयोग से दिखाई और विस्तार से सबके बारे में बताते भी रहे।
सिर्फ एक इमारत बाकी रह गयी थी, वह थी इंजीनियरिंग कॉलेज की इमारत। चूंकि मालवीयजी को किसी जरूरी बैठक में जाना था, अत: उन्होंने प्रो. टी. आर. शेषाद्रि से कहा कि आप इन महानुभावों को इंजीनियरिंग कॉलेज दिखा दें।
प्रो. शेषाद्रि बोले, “अब तो शाम हो गयी है, शायद कॉलेज बंद भी हो चुका हो ।” फिर भी मालवीयजी ने कहा, “कोई बात नहीं, वहां चपरासी तो होगा ही। “
शेषाद्रिजी ने शंका व्यक्त की, “बहुत संभव है कि इस समय कोई चपरासी भी न हो। “
मालवीयजी ने उसी धैर्य से कहा, “फिर भी ये लोग बंद दरवाजों में लगे कांचों से ही झांककर भीतर देख लेंगे। आप इन्हें ले जाइए। मालवीयजी और प्रो. शेषाद्रि की बातचीत सुन रहे अंग्रेजों में से एक ने कहा, “अब मेरी समझ में आ गया कि किस प्रकार इतने बड़े विश्वविद्यालय का निर्माण हुआ होगा।
यह वाक्य कहकर उन्होंने मालवीयजी के धीरज की प्रशंसा की थी।