एक संत भगवा वस्त्र पहने धूनी रमाए बैठे थे। उनके साधक व्यक्तित्व की परीक्षा लेने के लिए एक व्यक्ति आया। उनसे पूछने लगाः ‘बाबा जी, धूनी में कुछ आग है क्या?’ बाबा बोलेः ‘इसमें आग नहीं है।’
उस व्यक्ति ने उन्हें उत्तेजित करने के लिए पुनः पूछाः ‘कुरेद कर तो देखिए शायद कुछ आग हो।’
बाबा जी ने थोड़ा रुष्ट होकर कहाः ‘मैं तुम्हें बता चुका हूं कि इसमें आग नहीं है।’
अब वह व्यक्ति पुनः बोलाः ‘देखिए महाराज। कुछ तो चिनगारियां होंगी ही।’
संत वेशधारी बाबा ने झुंझलाते हुए कहाः ‘अपना रास्ता ले। धूनी में न तो आग है और न चिनगारी।’
लेकिन मुझे तो लपट उठती दिखाई दे रही है।’ उस व्यक्ति ने कहा। अब तो बाबा के धैर्य का बांध टूट गया और वे उस व्यक्ति को चिमटा उठा कर मारने दौड़ पड़े। वह व्यक्ति अपने को बचाता हुआ बोलाः ‘महाराज। अब तो अग्नि पूरी तरह भड़क चुकी है।’ उसका इशारा संत बाबा के क्रोध की तरफ था।
अब साधु को बोध हुआ कि आवेश ने क्रोध रूपी अग्नि को जन्म दिया है। उनको समझ में आया कि मात्र वेश परिवर्तन से नहीं, वरन् स्वभाव में परिवर्तन से व्यक्तित्व में संत के गुण आते हैं। उन्होंने व्यक्ति से अपनी अधीरता के लिए क्षमा मांगी, और उसे अपने गुरू का दर्जा दिया।