महान संत गोरखनाथ ने घोर तपस्या तथा साधना के बल पर अनेक सिद्धियां प्राप्त कर ली थीं। वे चाहते थे कि जन-कल्याण लिए ये सिद्धियां किसी सुयोग्य संत को सौंप दी जाएं।
एकदिन गोरखनाथ जी काशी में गंगा तट पर बैठे हुए थे। उन्होंने एक दंडी संन्यासी को गंगा में अपना दंड प्रवाहित करते हुए देखा। संत उनके पास पहुंचे तथा बोले, ‘महात्मन्, मैं आप जैसे योग्य संत की तलाश में था, जिन्हें साधना से प्राप्त सिद्धियां अर्पित कर सकूं। कृपया ये सिद्धियां स्वीकार कर मुझे कृतार्थ करें।’
संन्यासी ने बाबा गोरखनाथ के समक्ष दोनों हाथ पसार दिए। बाबा ने उन्हें सिद्धियां अर्पित कर दीं। संन्यासी ने दोनों हाथों की अंजुलियां गंगा की ओर कर कहा, ‘मां गंगे, मैं बड़े भाग्य से सांसारिक प्रपंचों से मुक्ति पा सका हूं। इन सिद्धियों को भी तुम्हें समर्पित करता हूं।’
गुरु गोरखनाथ संन्यासी की विरक्ति देखकर हतप्रभ रह गए। वह बोले, ‘महात्मन्, वास्तव में सच्चे संन्यासी तो आप हैं, जिन्हें दुर्लभ सिद्धियां भी आकर्षित नहीं कर पाईं तथा उन्हें जल में अर्पित करने में एक क्षण नहीं लगने दिया।’