हमें आत्मज्ञान की प्राप्ति तभी हो सकती है। जब हम मोह, माया और दूसरे गुणों पर आसक्त न होते हुए पूरी तरह ईश्वर और कर्म पर ध्यान दें। आत्मज्ञान होने पर इसे स्वयं तक सीमित रखना बिल्कुल भी श्रेयस्कर नहीं है। इसे और लोगों में बांटे इसीलिए कहा भी गया है कि ज्ञान बांटने से बढ़ता है। आज प्रेरक प्रसंग में पढ़िए भगवान बुद्ध के एक अनूठे शिष्य कहानी ?

महाकश्यप भगवान बुद्ध के प्रिय शिष्य थे। बुद्ध उनकी त्याग भावना तथा के ज्ञान से संतुष्ट होकर बोले, ‘वत्स, तुम आत्मज्ञान से पूर्ण मंडित हो चुके हो। तुम्हारे पास वह सब है, जो मेरे पास है। अब जाओ और सत्संदेश का जगह-जगह प्रचार-प्रसार करो।’
महाकश्यप ने ये शब्द सुने, तो उनका चेहरा लटक गया। वह बोले, ‘गुरुदेव, यदि मुझे पहले पता चल जाता कि आत्मज्ञान उपलब्ध होते ही मुझे आपसे दूर जाना पड़ेगा, तो मैं इसे प्राप्त करने के झंझट में ही नहीं पड़ता। मुझे आपके सान्निध्य में रहने में, आपके चरणस्पर्श करने में जो परम आनंद प्राप्त होता है, उससे मैं कदापि वंचित नहीं होना चाहता। मैं अपने आत्मज्ञान को भुला देना चाहता हूँ।’
भगवान बुद्ध ने अपने इस अनूठे शिष्य को छाती से लगा लिया। उन्होंने उसे समझाया, ‘तुम सद्विचारों व ज्ञान का प्रचार करते समय जहां भी रहोगे, मुझे अपने निकट देखोगे। मेरा हाथ सदैव तुम्हारे सिर पर रहेगा।’
और महाकश्यप भगवान बुद्ध को प्रणाम कर ज्ञान के माध्यम से अंधकार मिटाने के अभियान पर चल दिए।