महाभारत वनपर्व के मार्कण्डेयसमास्यापर्व के अंतर्गत अध्याय 197 में इन्द्र और अग्नि द्वारा शिबि की परीक्षा का वर्णन हुआ है। यहाँ वैशम्पायन जी ने जनमेजय से इन्द्र और अग्नि द्वारा शिबि की परीक्षा के वर्णन की कथा कही है।[1]

एक बार राजा शिवि के राजधर्म की परीक्षा लेने के उद्देश्य से देवराज इन्द्र ने बाज का और अग्नि देव ने कबूतर का रूप ारण किया। बाज के भय से डरा हुआ कबूतर राजा शिवि की गोद में जा बैठा। बाज ने महाराज से कबूतर उसे सौंप देने की याचना की। शिवि ने कहा, हे पक्षीराज! यह शरणागत है, इसलिए इसे मैं तुम्हें नहीं सौंप सकता। यदि मैंने इसे तुम्हें सौंप दिया तो तुम इसे मार कर खा जाओगे, जबकि राजा का धर्म ही प्रजा की रक्षा करना है। बाज ने किया, महाराज मैं बहुत दिनों का भूखा हूँ, यदि मुझे मेरा आहार नहीं मिला तो मैं पुनः निवेदन क्षुधा की पीड़ा से मर जाऊंगा, फिर आपके प्रजापालन-धर्म का निर्वाह कैसे हो पाएगा? यदि आप चाहें तो इस कबूतर के बराबर अपने शरीर का मांस ही दे दें। दानी शिवि ने इस प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार कर लिया। तराजू पर राजा स्वयं अपना मांस तलवार से काट-काट कर चढ़ाते गए, परन्तु देव लीला से कबूतर का वजन बढ़ता गया। जब शिवि मांसहीन हो गए, तब वे स्वयं तराजू पर चढ़ गए। शिवि की इसीलिए प्रशंसा की जाती है कि उन्होंने प्रजा और शरणागत बने जीवों के हितों की रक्षा के लिए अपने जीवन का भी मोह नहीं किया। वस्तुतः यही राजधर्म है।