रोजाना एक कविता: आज पढ़िए वरिष्ठ अधिकारी गुरु प्रकाश की कविता ‘बरगद का पेड़’

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सिविल सेवा के वरिष्ठ अधिकारी गुरु प्रकाश… लफ़्जों को संजीदगी से तराशने वाले कवि हैं। जिन्होंने रोजमर्रा की जिंदगी को अपनी कविता का आधार बनाया। उनके शब्द किसी हथौड़े की तरह हमारी चेतना पर पड़ते हैं और हमें अंदर तक झंझोड़ देते हैं। आज इंडिया ग्राउंड रिपोर्ट की ‘रोजाना एक कविता’ श्रृंखला में आप पाठकों के बीच पेश है गुरु प्रकाश की मार्मिक कविता

मैं
बरगद का पेड़ हूं
फुनगियों पर चढ़ी दो आंखें
देखता हूं
ये सरसों के पीले फूल और गेंहू के सुनहरे बाल की तरह
क्रमश :
अलाव में हाथ सेंकता चिथड़े किसानों का झुंड
और
भट्ठी में गोश्त भूनते कारिंदे जमींदार के
गांव के बीचो-बीच
रक्त का बढ़ता पनाला
एक किनारे पर तड़पता किसान
दूसरे पर गोश्त हड़पते दरिंदे, कारिंदे
गांव की शान , गांव की ढलान
जमींदार का मकान
लुढ़कते हैं उस ओर
सिक्के और बोरियां अनाज की
किसान के पास पुनः कर्ज का बोझ
हल्का होकर ऊपर पहुंचता हुआ
अचानक
एक अट्टहास की आवाज
कारिंदों सी नहीं, परिंदों की
क्यों ? क्यों ? क्यों ?
चौंकता, सोचता, पूछता किसान
अट्टहास…
मेरी अशिक्षा, मेरी गरीबी और कुछ पर
तुम मुर्ख हो! तुम्हारा अभिप्राय ही
भूखा, नंगा और चिथड़ा है
क्या ? क्यों ? कैसे ?

क्योंकि तुम्हारे पास शिक्षा नहीं है
लेकिन हमारे पास रोटी भी तो नहीं है
लड़ना सीखो
लेकिन मरना तो जानते हैं
तभी धीरे से नागफनी ने कहा
सारे गांव में, मुझे बो दो
तब
न तो गेहूं के बाल होंगे न ही कारिंदे
सर खुजाता किसान कि हम
पहले अशिक्षित हुए या गरीब?
प्रश्न सरल भी, कठिन भी
‘पहले मुर्गी हुई या अंडा’ की तरह