गांव और स्त्रियां

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गांव और स्त्रियां

गांवों को धर्म की राजनीति किस तरह बर्बाद करती है. यह लोग तुरंत नहीं समझते. पर समय सबकुछ सिखाता है. इसे अलग कर दिया जाए तो गांव-घर एक सुंदर जगह है जहां लोग ज्यादा मनुष्य हैं. आदिवासी गांवों की एक समस्या तो यह है कि लोग आपसी ईर्ष्या-डाह में डूबे रहते हैं. इसलिए एक साथ आ नहीं पाते. ईसाईयत ने प्रार्थना के नाम पर उन्हें घंटी की आवाज़ सुनते ही एक जगह साथ आना और खड़े होना सिखाया है.

लेकिन यह कोरम पूरा कर देने के बाद गांवों में वही अंधविश्वास, डायन-बिसाही, ईर्ष्या-डाह आज भी बना हुआ है. इन सब बातों ने मिलकर आदिवासियों की जड़ें खोद दी हैं. पहले आदिवासियों की अपनी स्वशासन की व्यवस्था ने संभवतः थोड़ी मजबूती बचाकर रखी थी, जिसके तहत गांव की सुरक्षा, पहरेदारी, समस्या समाधान, व्यवस्था आदि की ज़िम्मेदारी खुद गांव के लोग उठाते थे. कोई खतरा आने पर एक आवाज़ गूंज उठती थी और लोग जुट जाते थे. वह सबकुछ टूटा है.

जुरमू गांव की स्टेला मिंज कहती हैं ” जब इस गांव के चार लोगों को मारते-मारते साहू बस्ती की ओर लिया जा रहा था तब हमारे गांव के बहुत से आदिवासियों ने यह देखा था. पर गांव लौटकर सब अपने-अपने घर घुस गए. किसी ने आकर खबर नहीं की.” विधवा जेरेमिना कहती हैं ” लोग प्रार्थना के लिए तो एकजुट होते हैं लेकिन एक दूसरे को बचाने के लिए नहीं.”

रात भर गांव की स्त्रियों से चूल्हे के पास बहुत देर तक बात होती रही. स्त्री जीवन पर, धर्म पर, राजनीति पर. स्त्रियां बहुत निकट आ गईं. विधवा जेरेमिना ने कहा ” तुम मुझे मां कह सकती हो.बेटी की तरह हमारे घर आया-जाया करो. तुमसे बात कर बहुत ताक़त मिल रही है. अब तो मैं यहां अकेली रहती हूं.”

स्त्रियां रातों-रात मेरी शादी की चिंता भी करने लगीं. एक ने कहा कि उसका लड़का बहुत भला है. वह डुमरी में छोटा होटल चलाता है. बड़ा ही मेहनती है. जब रात वे सब चली गईं तब जेरेमिना और मैं एक साथ चटाई बिछाकर बरामदे में सो गईं. कंबल ओढ़ाकर हम बात करती रहीं और शादी वाली बात पर हंसती भी रहीं.

सुबह गांव की लड़कियां भी आईं. लौटते वक्त जेरेमिना ने मुझे अपने खेत की सब्जियां दी. फिर मेरे लिए अरवा चावल पछुरने लगीं. उन्हें देखते हुए याद आया. मेरी मां भी हमारे लिए अक्सर चावल पछुरती रहती थी. सारी माएं एक सी ही होती हैं.

स्त्रियां छोड़ने के लिए गांव के बाहर आईं. एक ने कहा ” मेरे लड़के से नहीं मिलोगी?.” सब हंसने लगीं. ” ठीक है. मैं जाते वक्त उसके होटल में चाय पी लूंगी” मैंने कहा. और वादे के मुताबिक उस स्त्री के बेटे के होटल में चाय पी ली रास्ते में.

एक गांव जहां दुःख की स्मृति है पर जीवन और स्त्रियों की हंसी भी है. चूल्हे में अंगोर बचा हुआ है. वे जीवन में ताप बचा रहे इसलिए अंगोर बांट रहीं हैं. लोग कहते हैं कि पहाड़ पर जैसे बारिश का पानी नहीं टिकता, वैसे ही जंगल-पहाड़ के लोगों के जीवन में दुःख. अपने सारे दुःखों पर स्त्रियां हंस देती हैं और जीवन की जद्दोजहद में रोज जुट जाती हैं. उन स्त्रियों को याद करते हुए मैं धीरे-धीरे लौट गई.

जसिंता केरकेट्टा
15/1/2022
जुरमू गांव, डुमरी ( गुमला)