रोजाना एक कविता: इज़हारे इश्क़ का ग्रीटिंग कार्ड

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याद है तुम्हे, सालों पहले
नये साल की वो पहली सर्द सुबह
दरख्तों के पीछे अंगड़ाइयां लेता सूरज
दूर क्षितिज तक पसरे सरसों के पीले फूल
और ठंडी साँस लेटी गंगा नदी
जानती हो
मोहब्बत की न जाने कितनी अनकही दास्तां
लिपटे हैं इसके दामन से
पहली बार तुम इसी नदी के किनारे मिली थी मुझसे
और रख दिया था मेरी हथेली पर एक ग्रीटिंग कार्ड
जिस पर लिखे थे इज़हारे इश्क़ के शेर
गाढ़े लाल अक्षरों में….
जिंदगी कितनी खूबसूरत लगी थी उस दिन
तुम्हारे हाथों की वो पहली छुवन
गीला कर गई थी रूह को
लड़ते-झगड़ते ,रुठते-मनाते, दुलारते-मनुहारते
जिंदगी का एक लम्बा अर्सा बीत गया
तुम हर नए साल इसी नदी किनारे
थमा जाया करती एक ग्रीटिंग कार्ड
और फिर
मुलाकात के हज़ारों सिलसिलों के बाद
वो लम्हा भी आया जब बंद हो गया मिलना तुम्हारा ग्रीटिंग कार्ड
‘‘मधुर मिलन है अन्त प्रेम का और विरह जीवन है’’….
हमारे हिस्से में विरह ही आया
वक्त के आगोश में फ़ना हो गयी बीते लम्हों की सारी तस्वीरें…
धुंधले पड़ गये गुलाबी खतों के जज़्बाती शब्द…
और फिर उम्र के इक मोड़ पर सब कुछ बदल गया … सिर के बाल झड़ने लगे..
चेहरे का रंग उतरने लगा..
पेट हल्का सा बाहर आ गया…
आज सालों बाद,
कुछ लम्हें दिल की दीवारें कुरेच कर अन्दर उतर आये हैं…
कुछ यादें सरगोशियाँ कर रही हैं बीते लम्हात की परछाइयों तले
और मैं उसी नदी के किनारे खड़ा हूँ
जहां तुमने रखा था मेरी हथेली पर
इज़हारे इश्क़ का ग्रीटिंग कार्ड….

युवा कवि : अमित बृज