
ओ दीवाने लड़के !
तू जो अपनी आँखों को पानी पहनाए
फिरा करता है, मेरी पदचापों को चीह्नता हुआ
आधी-आधी रात सड़कों पर उदास
क्या जानता है ?
मुझ तक कोई सड़क नहीं आती …
इन उदास अंतरालों पर
स्वयं को अकेले देखते रहने का अभ्यास
इतना कठोर हो चुका है
कि इस एकांत का अनवरत दुःख ही
अब सुख दिया करता है
मिथ्या है इस जगत की सब उक्तियाँ
दरअसल
एक और एक मिलकर भी
दो अकेले अंततः अकेले ही रहते हैं
मनचाहा सहचर्य उनकी
उचटी निंद्रा का स्वप्न भर हुआ करता है
लगभग अलभ्य, अप्राप्य
सुन !
तुझसे कहना था मुझको,
कि यह जो पीड़ा है
मुझ से उपजती हुई, तुझ तक पहुंचती हुई
इसकी कोई औषधि है न उपचार
जहां पीड़ा ही
आकुल हृदयों का आखेट करती हो
प्रेम के ऐसे हिंसक बियाबान से
तुम्हे निकल जाना चाहिए
भाग्य की दुहाई
बच्चों के लिए है बुद्धू लड़के
इस वय तक आकर जान गई हूं कि
भाग्य और पाप पुण्य का छलावा बस ईश्वर की चतुराई है
तुम भी जान लो अच्छी तरह
कि मेरा प्रेम तुम्हारी प्रार्थनाओं का प्रसाद नहीं
सुख मेरे सुरंगे उपवन का पुष्प ही नहीं
बल्कि मेरा भाग्यचक्र ही प्रतीक है
प्रेम की चिर अतृप्ति का
मेरे भाग्य के मरुथल में
पथिको को जल नहीं मिलता
उसकी मरीचिका मिला करती है ….