रोजाना एक कविता : आज पढ़ें कात्यायनी की कविता एक अधूरा-असमाप्त गीत

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जीवन के अंतिम पल तक
चाहतों और सपनों के अक्षय पात्र जैसा हो
यह हृदय !
यायावरी में होना चाहूँ
घाटी के ऊपर उड़ते-भटकते
बादल की तरह बेपरवाह
और ठहराव में
निर्जन में हिलते बहुरंगी फूलों की तरह I
चाहती हूँ
नये विचारों के साथ होना
साहसी, निर्भीक ध्रुवीय भालू की तरह अकेला
और कठिन समय की काठ जैसी छाती पर
उम्मीदों की चोट करते रहना
हठी कठफोड़वे की तरह,
विरासत को ढोकर पहुँचाना नये ठिकानों तक
अविरत श्रमरत चींटियों की तरह,
सृजन में होना परागण में सहायक बनती
मधुमक्खियों की तरह,
और तमाम पाखंडों, तमाम झूठों,
तमाम मानवद्वेषी चतुराइयों, हिंस्र महत्वाकांक्षाओं,
विचारों के साथ किये गये प्रत्येक छल,
लोगों को भेड़ों के रेवड़ की तरह हाँकने
और उनपर शासन करने की प्रत्येक चाहत,
इतिहास के साथ किये गए प्रत्येक विश्वासघात
और तमाम-तमाम ग़लत चीज़ों से
निर्णायक, अविचल घृणा करना
जैसे जंगल के जीव अपने पर्यावास में घुस आये
अजनबियों से करते हैं I
चाहती हूँ सपनों को पकाना धीमी आँच पर
माहिर रसोइये की तरह,
पराजय के दिनों में अजेयमना योद्धा की तरह सोचना
आने वाले दिनों के निर्णायक युद्ध की चुनौतियों
और रणनीतियों के बारे में,
खोजी उड़ानें
बेचैन चील की तरह
और तूफ़ानों का आवाहन
तूफ़ानी पितरेल पक्षी की तरह I
जानती हूँ कि कठिन समय में हर क़ीमत पर
हृदय की तरलता को
यूँ बचाए रखना होता है जैसे
साइबेरिया के हिमप्रदेशों में भी बची रहती हैं
ज़िंदगी की सुगबुगाहटें
और बर्फ़ की मोटी परतों के नीचे
कुछ हठी वनस्पतियों के बीज
बसंत की प्रतीक्षा करते हुए I
और कई बार अपने प्यार तक
यूँ भी पहुँचना होता है जैसे कठिन मौसम में
प्रवासी पक्षी आते हैं
हज़ारों किलोमीटर की लम्बी, कठिन
और रोमांचक यात्रा तय करके
ख़ुशगवार ऋतुओं के प्रदेशों तक I
कोलाहल और तूफ़ानों और
अल्पकालिक शान्ति के दिनों और
अनिश्चितता और निश्चितता के निरंतर द्वंद्व से भरे
ग्लानिरहित, क्लांत जीवन के बाद
एक ऐसी शान्त सी मृत्यु की चाहत
जायज़ और स्वाभाविक है जैसे
सुबह के किसी राग पर आधारित
धुन बजाती बाँसुरी
धीरे-धीरे आपसे दूर, और दूर,
चलती चली जा रही हो I