रोजाना एक कविता : आज पढ़े आशुतोष दुबे की कविता कामना का अंतिम प्रहर

0
348

कामना का यह अंतिम प्रहर
प्रेम की यह आखिरी तड़प
और एक साथ इतनी बिजालियों का गिरना

अब आग नहीं
आंच की खुमारी है

स्याह पर्दे पर
फुसफुसाहट की इबारत में
लिखता है वह एक पुरातन पुरुष प्रश्न :
कैसा लगा?

कि जैसे टूटता है जादू
अचानक कम होने लगता है
कमरे का तापमान

सिहरते हुए वह
चादर सिर तक खींचती हुई
पूछना चाहती है

तुम प्रेम कर रहे थे
या परीक्षा दे रहे थे

समर्पण में विभोर थे
या अवरुद्ध थे तनाव में

लेकिन वह कुछ नहीं कहती

और वह उसके मौन को
अपनी तरह से
बूझता रहता है