काजी सुहैब खालिद
अच्छा है तुम चाँद सितारों में नहीं,
अच्छा है तुम संगमरमर की मजारों में नहीं,
जब कोई मंजिल की राह में जाता है,
थक के भीड़ में घिर जाता है,
हर तरफ पत्थर के चेहरे पाता है,
फिर वो खयाल ही तो है तुम्हारा,
जो मेरे इर्दगिर्द सब्ज बाग़ सा खिल आता है,
मैं जिसे छू भी सकता हूँ, जी भी सकता हूँ,
अनकहे राम से भी सकता हूँ,
वो इक जमाने की बात
जो तुम समझ भी सकती हो,
मैंने कई बार यूँ ही सर टिकाया है,
ये सिरात मेरी जिन्दगी का सरमाया है,
अब जिस दिन भी
चाँद सितारों के मू पे आसमानी डापन आएँगे,
मैं मुस्कुराऊँगा, वो गश खा के बुझ जाएँगे,
अच्छा हैं तुम चाँद सितारों में नहीं।