रोजाना एक कविता : आज पढ़ें विशाखा मुलमुले की कविता भाषा

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वह दिन भर कई संभाषणों से गुजरती है

किशोर संततियों से उनकी भाषा में बात करती है

कि , अब जरूरी है जननी का मित्रवत होना

दूधमुहें को देख तोतलाती है जबकि जानती है

कि , अभी स्मित ही है उनकी भाषा

बुजुर्गों से अदब की भाषा में कहती है

सहेलियों संग नटखट हो जाती है

सहचर संग नैनों की भाषा तो

कभी मान – मुन्नवर कर इठलाती है

पर समझी न कभी किसी ने उसके संदर्भ की भाषा

खुशियों के एवज में वह लाद दी गई आभूषणों से

यह कह स्त्री समझती हैं केवल स्वर्ण की भाषा

चार दिवारी से निकल जब बाज़ार से गुजरती है

तब अपनाती है मोल – भाव की भाषा

ईश्वर के प्रांगण में उपस्थित

अनायास अपनाती है वही भाषा

सदियों से बिकावली में रही वह

न जानी उसने कभी खरीदारी की भाषा

चलचित्र को देख छलक जाती है बरबस

नायिका से मिलती – जुलती

कभी नायिका कहती है उसके मन की भाषा

उम्र की देहरी पर धूप सेकते हुए

सुमिरन करती है बीते कल की भाषा

इतने सम्भाषणों से गुजर कर भी

न खोज पाती वह अपनी भाषा

क्योंकि न एकालाप किया उसने

न रच सकी कभी स्वयम के प्रतिमान की भाषा