सरगोशियां : हादसा…

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Sargoshiyan

कहते हैं, हादसे इंसान की जिंदगी बदल देते हैं और ये शायद कहीं न कहीं सच भी है। एक ऐसे ही हादसे ने मुझे भी यह बात सोचने पर मजबूर कर दिया। आज मैं मेरे बचपन की एक याद या कहे कि एक बुरी याद, या कहे कि एक ऐसे हादसे का जिक्र आपके सामने करने जा रही हूं, जिसने एक ही रात में हंसते खेलते परिवार को खून के आशु रोने पर मजबूर कर दिया ।
एक ऐसी घटना, जिससे मेरा पूरा गांव दहल गया।

एक हंसती खेलती लड़की संगीता! जिसे प्यार से सब चुहिया बुलाते थे।
हमारे घर के बगल में लोहार बस्ती थी। वैसे तो हम ब्राह्मण जाति के हैं, पर मैं हमेशा संगीता के घर पर ही मिलती। जबसे वह पैदा हुई थी, दादी से बचते बचाते मैं पहुंच ही जाती उसके घर, उसके साथ खेलने के लिए।

९ जून की वो दोपहर आज भी मुझे याद है। आज ही के दिन हुआ था संगीता का जन्म। एक दम गोरी चिट्ठी, गोल सा चेहरा, हमारी दादी कहती कि लगता ही नहीं कि किसी लोहार की बेटी है।
“इसके नैन नक्श देख मधुरा लग ही नहीं रहा की रामप्रसाद की बिटिया है, क्यूं री! मधूरा कहा से ले आई ये चांद सी शक्ल वाली। मुझे तो नहीं लगता कि ये रामप्रसाद की जनि है? सच सच बता” दादी ने मजाक करते हुए कहा था मधुरा काकी से।

“क्या अम्मा आप भी ना ” बूढ़ी हो गई हो पर शरारते अभी भी जवानों वाली करती हो। आपके रामप्रसाद की ही जनि है, कहीं किसी दूसरे के पास नहीं गई, और अचानक से सब हंस पड़े थे।
मैं अकसर दादी से छुप कर चली जाती लोहार बस्ती में संगीता के साथ खेलने। कभी कभी उसे भी छुपाकर ले आती अपने घर।

दादी को ये सब नहीं पसंद था। दादी एकदम पुराने खयालों वाली थीं, जिसे आप एक टिपिकल ब्राह्मण कह सकते हैं। संगीता धीरे धीरे बड़ी होने लगी थी। बड़े होने के साथ साथ उसकी सुंदरता में भी इजाफा होता जा रहा था। अकसर लोगों के मुंह से सुनने को मिल जाता, कि भगवान ने बड़ी ही फुर्सत से गढ़ा है इसे। अभी इतनी छोटी सी उम्र में ये हाल है आगे न जाने क्या होगा।
और सच कहूं तो वाकई उसे देखकर ऐसा लगता था, कि भगवान ने सचमुच सुंदर नाम की कोई चीज बनाई है। कही से भी काटने लायक नहीं, रंग इतना गोरा की छूने भर से खून निकल जाए, बाल इतने कोमल जैसे रुई, आज कल हम युवा अकसर अपने बालों को कर्ली कराना पसंद करते हैं, पर संगीता के बाल! ऐसा लगता भगवान ने खुद अपने हाथों से कर्ली करके भेजा हो। आंखे एक दम हिरनी जैसी, कटीले भौहें मानो अभी अभी तुरंत मेक अप करके आई हो। आठ साल की उम्र में ही संगीता की खूबसूरती के चर्चे सबकी जुबान पर थे, क्या आदमी क्या औरत, बच्चे बूढ़े सब। और उपर से उसकी शरारतें।
जिस किसी से भी बात कर लेती उसका मन मोह लेती।

“शाम होते ही किसी न किसी बहाने आ जाती घर। चाची आज चूल्हा जलाने के लिए थोड़ा अपने चूल्हे से आग तो दे दे!”
“चाची, चल भाग आ गई, तुझे कितनी बार कहा है कि यूं मुंह उठाकर सांझ ढलने पर आग मांगने न आया कर”।
सांझ ढले अपने चूल्हे का आग तुझे देकर मैं क्या भिखारी बन जाऊं। जा नहीं देती आग।
चाची अकसर उसे डांट देती।
” ठीक है मत दे आग आज यहीं तेरे यहां ही खाना खा कर सो जाती हूं, वैसे भी अब कौन जाए खाना बनाने, अपने शरारत भरे अंदाज में यहीं बातें वो अकसर कह देती, और हंसी मजाक करके आग लेकर चली जाती।
” सुमन ! तूने ही इसे आदत डाल दी है, आ जाती है हर रोज कुछ ना कुछ मांगने, अकसर संगीता के जाने के बाद चाची मुझे डांटती।
” जाने दे ना चाची इसी बहाने हर रोज आ जाती है, मुझे अच्छा लगता है , काश ये मेरी छोटी बहन होती तो इसे इतना स्नेह करती मैं।
हर रोज मैं अपने कॉलेज से लौटते समय उसके लिए टॉफियां लाती और चोरी से उसे रास्ते में ही बुलाकर दे देती।
” चुहिया कही की! कैसे टॉफी लेने के लिए भाग कर आ जाती है और काम के लिए बुलाओ तो नहीं सुनती।
“कहां दीदी, अच्छा पहले टॉफी दे, दे फिर डांटना।”
और शाम होते ही फिर चूल्हे में आग जलाने के लिए आग लेने आ जाती।
उस शाम वह नहीं आई। चाची ने मुझसे पूछा आज संगीता नहीं आई, आग लेने।
” क्यूं क्यूं, तू ही तो हमेशा उसे डांट देती है, कल भी कितना जोर से झुंझलाकर बोली थी उससे। मुझे लग रहा है, कि उसको बुरा लग गया। कल से मत डांटना, कल कॉलेज एस लौटते वक्त मैं उसे मना लूंगी।”

हम दोनो बातें कर ही रहे थे, कि अचानक बाहर से लोगों के चिल्लाने की आवाज आई…

“और दौड़ो दौड़ो! पकड़ो उसे, बाहर निकालो उसे, हे भगवान! ये क्या अनर्थ हो गया। कैसे गई वहां वो? आज तो वहां बिजली भी नहीं है। पूरा अंधेरा है।”

आवाज संगीता के घर के तरफ से आ रही थी। दादी भी तब तक संगीता के घर तक पहुंच चुकी थी। और अचानक लंबी लंबी सांसे लेते हुए भागकर वापस आ गई।

” क्या हुआ अम्मा? कहा गई थी? अचानक चाची ने पूछा?
अरे क्या बताऊं मुकेश की मेहरारू! बहुत बड़ा। अनर्थ हो गया है। “
हुआ क्या है? और बाहर से ये अचानक चीखने की आवाज क्यूं आ रही है? चाची के बार बार पूछने पर दादी ने रोते हुए सब बताया।

जैसे ही मैंने दादी के मुंह से संगीता का नाम सुना भागकर संगीता के घर चली गई, वहां कोई नहीं था। सबसे पूछने पर पता चला कि सब लोग बबलू काका के मशीन पर गए है, जहां गन्ने की पेराई हो रही थी।
चार चार बड़े बड़े कराहे चढ़ाए गए थे, बड़ी बड़ी आग की भट्ठियां बनाई गई थी।
किसी में कच्चे गन्ने का रस था, तो किसी में पनुवे का पानी गरम हो रहा था। तीसरे में भेलियां बनाने के लिए गुड को जलाया जा रहा था। और किसी में काका के घर के बच्चों ने पके गुड में आलू गोद कर पकने के लिए डाले थे। अभी आज शाम को ही दादी ने हमारे लिए भी आलू गुदवाया था। वही लेने शायद दादी जा रही थी जब ये शोर सुनाई दिया।

अचानक मैं भी वही पहुंच गई और वहां जो भी दृश्य मेरी नजरो के सामने आया वह बड़ा ही भयावह था।
गांव के चाचा लोग मिलकर किसी को जमीन पर सुला रहे थे, उसका पूरा शरीर गुड़ में पाक चुका था। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या है?
संगीता की मां वहीं पास में रोते रोते बेहोश पड़ी थी। कुछ लोग आपस में बाते कर रहे थे। कितनी सुंदर थी? भगवान ने किसी को इतना सुंदर नहीं बनाया, जितना इसको बनाया था, लगता ही नहीं था कि लोहार की बेटी है और आज कैसे गुड़ में लिपटी हुई पड़ी है।
संगीता का पूरा शरीर जलकर एक दम प्लास्टिक जैसा हो गया था।