रोजाना एक कविता: धूप का जंगल नंगे पाँव इक बंजारा करता क्या

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धूप का जंगल नंगे पाँव इक बंजारा करता क्या

रेत के दरिया रेत के झरने प्यास का मारा करता क्या

बादल बादल आग लगी थी छाया तरसे छाया को

पत्ता पत्ता सूख चुका था पेड़ बेचारा करता क्या

सब उस के आँगन में अपनी राम-कहानी कहते थे

बोल नहीं सकता था कुछ भी घर चौबारा करता क्या

तुम ने चाहे चाँद सितारे हम को मोती लाने थे

हम दोनों की राह अलग थी साथ तुम्हारा करता क्या

ये है तेरी और न मेरी दुनिया आनी जानी है

तेरा मेरा इस का उस का फिर बटवारा करता क्या

टूट गए जब बंधन सारे और किनारे छूट गए

बीच भँवर में मैं ने उस का नाम पुकारा करता क्या

शायर
अंसार कंबरी