
अफ्री फ्रीका से लौटते समय गांधीजी को लोगों से ढेरों उपहार मिले। इनमें कीमती गहने भी थे। पहले तो गांधीजी उपहार लेना ही नहीं चाह रहे थे, लेकिन जब लोगों ने उन्हें अपने प्रेम का वास्ता दिया तो उन्होंने उपहार ले लिए।
उपहार के ढेर को देखकर गांधीजी समझ नहीं पा रहे थे कि उनका क्या किया जाए? एक दिन वे कस्तूरबा से बोले, ‘लोगों ने इतने सारे उपहार दिए हैं, मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि इनका क्या किया जाए?’ गांधीजी की बात सुनकर कस्तूरबा बोलीं, ‘आपको इस बारे में चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं है। लोगों ने ये उपहार हमें दिए हैं, इसलिए इन पर मेरा व बच्चों का अधिकार है। ये उपहार हमारे बच्चों के विवाह में काम आएंगे। इनका क्या करना है, वह मेरी जिम्मेदारी है।’
कस्तूरबा की बातें सुनकर गांधीजी ने उन्हें अपने पास बिठाया और प्यार से बोले, ‘बा, भला बताओ तो लोगों ने हमें ये उपहार क्यों दिए हैं?’ इस पर कस्तूरबा कुछ सोचते हुए बोलीं, ‘इसलिए, क्योंकि आप हमेशा जनहित के लिए मौजूद रहते हैं। जनहित के लिए आप समय व पीड़ा तक का ध्यान नहीं रखते। जनसेवा को आप सर्वोपरि समझते हैं।’
गांधीजी मुसकराकर बोले, ‘बा, चलो, मैं तुम्हारी बात मान लेता हूं। इसका यह अर्थ हुआ कि ये उपहार हमें जनसेवा के बदले मिले हैं, इसलिए इन पर जनता का ही हक हुआ। मेरे विचार में तो इन उपहारों का प्रयोग जनहित के लिए ही होना चाहिए। तब ही इन उपहारों का सार्थक उपयोग संभव है।’ गांधीजी की बात सुनकर कस्तूरबा उन्हें देखती रह गईं और गांधीजी ने उन उपहारों को जनहित के लिए बैंक में जमा करा दिया।