डॉक्टर अल्बर्ट श्वाइट्जर अमेरिका में अपना आश्रम बनवा रहे थे, जहां उनकी योजना अपना ज्ञान और अनुभव युवाओं में बांटने की थी। आश्रम के बनने की सारी प्रक्रिया उनकी देख-रेख में चल रही थी। एक दिन वहां तूफान आने का अंदेशा हो रहा था और इस दिन छुट्टी के कारण मजदूर आए नहीं थे। तूफान आने से पूर्व कुछ कीमती और जरूरी सामान सुरक्षित स्थान पर पहुंचाना आवश्यक था। उन्होंने आस-पास देखा, तो पास ही एक मुंडेर पर एक संभ्रांत-सा दिखने वाला युवक, जो कि पढ़ा-लिखा भी लगता था, बैठा था। अल्बर्ट के पास समय कम था, अत: वे उस युवक के पास पहुंचे और सामान उठवाने के लिए सहायता करने की प्रार्थना की, मगर वह टस-से-मस न हुआ और घमंड से सिर ऊंचा करते हुए बोला, देखिए, मैं एक पढ़ा लिखा और संभ्रांत घर का लड़का हूं कोई कुली या मजदूर नहीं, मेरा काम दिमागी है। यह बोझ उठाना मेरा काम नहीं समझे। नोबेल पुरस्कार विजेता अल्बर्ट के पास डॉक्टरेट की कई उपाधियां और डिग्रियों का ढेर था, मगर उन्होंने इस बात का जिक्र उस समय छेड़ना उचित न समझकर अपने काम पर ध्यान देना ज्यादा उचित समझा और सामान सुरक्षित स्थान पर पहुंचाने में जुट गए। सारा कार्य कुशलतापूर्वक करने के पश्चात् पसीने में लथपथ अल्बर्ट उस निठ्ल्ले युवक के पास आ बैठे और पानी पीते हुए बोले, भाई, ज्ञान हमें परिश्रम से नहीं रोकता है। मैं पढ़ा-लिखा होते हुए भी तुम्हारी तरह संभ्रांत नहीं बन सका, इसका मुझे अफसोस है। लज्जित युवक से अब उनके सामने आखं उठाते नहीं बन रहा था।