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खुसरो की दरगाह

खुसरो की ही मज़ार के बाहर
बैठी हैं विस्थापन-बस्ती की कुछ औरतें सटकर!
भीतर प्रवेश नहीं जिनका किसी भी निज़ाम में—
एका ही होता है उनका जिरह-बख़्तर।
हयात-ए-तय्याब, हयात-ए-हुक्मी !
औलिया के मज़ार के झरोखे की
फूलदार जाली परक्या जाने कब से ऊँचा बँधा है जो
मन्नतों का लाल धागा,
मौसमों की मार सहकर भी
सब्र नहीं खोता !
ढीली नहीं पड़ती कभी गाँठ उसकी 
उस गाँठ-सी ही बुलन्द और कसी हुई बैठी हैं दरगाह पर
दिल्ली की गलियों की
बूढ़ी कुँवारियाँ,
विधवाएँ, युद्ध और दँगों के भेड़िया-मुखों की
अधखाई, आधी लथेड़ी
ये औरतें!
बैठी हुई हैं वे खुसरो की दरगाह के बाहर
जिनसे सीखी खुसरो ने
अपनी मुकरियों की भाषा।
घरेलू बिम्बों से भरी हुई
अंतरंग बातचीत की भाषा में ही
लिखी जा सकती हैं कविताएँ ऐसी
जो सीधी दिल में उतर आएँ
—सीखी था खुसरो ने
दिल्ली की गलियों में इन्हीं औरतों से।
-अनामिका
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