कविता दबी हुई मनुष्यता की अभिव्यक्ति है। खुर्चन का स्वाद इस पर निर्भर करता कि आपका अन्तस कितना बड़ा है। यहां कविता का काम मनुष्य की अन्तस को बड़ा बनाना है। 1996 बैच के भारतीय रेलवे सेवा के अधिकारी यहां खरे उतरते हैं। उनकी दृष्टि सम्पन्नता उन्हें अपने समय के अन्य कवियों से अलग खड़ा कर देती है। अपने समय को सूक्ष्म दृष्टि से देखना और उसे शब्दबद्ध करना आसान नहीं होता। लेकिन कवि तो वही होता है जो इस कठिन चुनौती को स्वीकार करता है। इस चुनौती को स्वीकार करने वाला कवि ही दूर तक का सफ़र तय करता है। यतीश कुमार ऐसे ही कवि हैं। आज इंडिया ग्राउंड रिपोर्ट की ‘रोजाना एक कविता’ श्रृंखला में आप पाठकों के बीच पेश है यतीश कुमार की मर्मस्पर्शी कविता।
एक स्थिति हैं
हम तुम
वो जो डाल पर बैठे
तोता मैना हैं न
वो हम तुम हैं
पेड़ की जो दो फुनगियाँ
आपस में बिन बात बतियाती रहती हैं
वो हम तुम हैं
कुमुदिनी के फूल
जो जोड़ो में ही खिलतें है
बस दो दिन के लिए
कल ही तो खिले थे
तुम्हारे गमले में हम
हम हैं स्टेशन की पटरियाँ
जो शुरुआत में समानांतर
और आगे जब चाहे
क्रॉसिंग पर
गले मिलती रहती हैं
या फिर नाव के वो दोनो चप्पू
साथ चलने से जिसके गति रहती है
गंतव्य पर रोज़ रख दिए जाते है
एक साथ रात काटने के लिए
वो हम तुम हैं
शायद हम तुम हैं
घर के एक़्वेरियम में तैरती
नीली और काली मछलियाँ
मौन को समझ,इशारे में बात करते हैं
या वो गिनिपिग हैं दोनो
जो पिंजड़े में अपने शब्द चुगते,पचाते
और कुछ नहीं कह पाते हैं
हम दोनो हैं कभी
दो ,असंख्य
कभी एक या सिर्फ़ शून्य