
अपने जीवन के अंतिम महीनों में तोलस्तोय विकट परिस्थितियों से जुड़ते हुए स्वयं पर से नियंत्रण खोते जा रहे थे। उनके अंतिम दिन विषाद, नैराथ्य, स्वयं के प्रति घृणा से भरे हुए थे। अपने जीवन के शेष दिनों में तोलस्तोय ने अपनी नित्य डायरियों के अतिरिक्त कुछ नहीं लिखा इन डायरियों में वे प्रत्येक गुजरते दिन की घटनाएं दर्ज कर रहे थे। गांधी के लिए वह पत्र उनकी अंतिम विस्तृत रचना थी, बाह्य जगत के साथ अंतिम संवाद। वे जानते थे, कि उनके शिष्यों में से केवल गांधी ही उनके विचारों को आगे बढ़ाने व कार्य रूप में परिणत करने का सामर्थ्य रखते हैं, फिर भी उन दोनों के बीच बहुत कम संवाद था। इस अंतिम पत्र से पूर्व गांधी की ओर से चार व तोलस्तोय की ओर से केवल दो पत्र लिखे गए थे। जब गांधी को वह पत्र जोहांसबर्ग में मिला, तब तोलस्तोय के जीवन के कुछ ही दिन शेष रह गए थे। इन सब के बावजूद उन्होंने अपनी सादगी व कोमलता को नष्ट नहीं होने दिया व यदा – इन भावों से परिपूर्ण रचनाएं लिखने की शक्ति सचित कर ही लेते थे। अपने जन्मदिन के कुछ दिनों बाद 20 सितम्बर को उन्होंने गांधी को एक लंबा पत्र लिखा। उस पत्र का एक अंश….
हिंसा व प्रेम का कहीं कोई साम्य नहीं
‘जैसे-जैसे जीवन के दिन बीत रहे हैं और खासकर अब, जब मैं प्रतिपल मृत्यु को निकट से महसूस करता हूं, मैं सभी को बताना चाह रहा हूं कि मैं निष्क्रिय विरोध के बारे में क्या सोचता हूं और इसे इतना महत्वपूर्ण क्यों मानता हूं। ‘निष्क्रिय विरोध’ वास्तव में बिना किसी अभिनय, प्रदर्शन व प्रतिपादन के ‘प्रेम’ का स्वरूप शिक्षित करना है। प्रेम इंसानों को जोड़ने वाली आत्मिक शक्ति है व मानवता का सर्वोपरि व एकमात्र नियम है। यह तथ्य प्रत्येक मनुष्य अपनी आत्मा की गहराइयों से जानता और समझता है? जैसा कि बच्चों में प्रतिपादित होता है जब तक व्यक्ति झूठे सांसारिक प्रपंचों में नहीं फंसता, वह इसी नियम के अनुसार जीता है। इस नियम की उदघोषणा प्रत्येक सभ्यता ने की है? भारत, चीन, हिब्रू ग्रीक व प्राचीन रोमन संत मेरे विचार में इस नियम का सर्वाधिक स्पष्ट प्रतिपादन ईसा ने किया है, ‘सभी फरिश्ते और नियम केवल प्रेम में ही समाहित है।’
पर यह नियम भी विकृतियों से परे नहीं है। इस नियम को विकृति का खतरा उन लोगों से है, जो सांसारिक स्वार्थी में जीते हैं और यह ख़तरा वह प्रवृत्ति है, जो उन स्वार्थों की रक्षा के लिए ताक़त के इस्तेमाल को सही ठहराती है। ईंट का जवाब पत्थर से देना, छीनी गई वस्तुओं को ताक़त से वापस लेना इत्यादि पर प्रत्येक बुद्धिमान व्यक्ति की भांति वे भी जानते थे कि हिंसा व प्रेम का कहीं कोई साम्य नहीं है। जैसे ही हिंसा को जीवन में स्थान दे दिया जाता है, चाहे वह किसी भी कारणवश हो, नियम के रूप में प्रेम की अपर्याप्तता मान्य हो जाती है अर्थात् प्रेम नकार दिया जाता है। पूरी ईसाई सभ्यता, जो बाहर से इतनी विकसित है, दरअसल इसी स्व-प्रामाणिक ग़लतफ़हमी और परस्पर विरोध में पली-बढ़ी है, वह कई बार सचेत भी हुई, पर अधिकतर इसके प्रति अचेत ही रही।
वास्तव में जब प्रेम में हिंसा का दखल हो जाता है तब वह प्रेम रहता ही नहीं, प्रेम का नियम विलुप्त हो जाता है। जब प्रेम का नियम ही नहीं रहता तो कोई नियम नहीं रहता, केवल हिंसा शेष रह जाती है, सर्वाधिक ताकतवर का प्रभुत्व। ईसाइयत उन्नीस सदियों से इसी प्रकार जीती आ रही है, पर यह भी सच है कि जीवन के निर्णायक क्षणों में व्यक्तियों ने हिंसा से मार्गदर्शन लिया है। अतः अब प्रश्न यह उठता है कि या तो हम यह स्वीकार कर लें कि हम ईसा की शिक्षाओं को मानते ही नहीं व अपना जीवन ताकत व ताकतवरों के अनुसार ही जीते हैं अथवा सभी कर, राजदरबार पुलिस व्यवस्था और मुख्यतः सेनाएं नष्ट कर दें। अंतर ट्रांसवाल में आप, जो कार्य कर रहे है, वह बहुत महत्वपूर्ण है, दुनिया के इस कोने से मुझे लग रहा है, आपका कार्य, दुनिया में इस वक़्त हो रही बाक़ी सभी गतिविधियों से आवश्यक व सारभूत है। इस काम में न केवल ईसाई राष्ट्र वरन पूरे संसार के राष्ट्र अपनी सहभागिता दिखाएंगे।
- लियो तोल्स्तोय