पांचों राज्यों में उम्मीद के अनुरूप ही रहे परिणाम, भाजपा ना जीती ना हारी
पांच राज्यों के चुनाव परिणाम में बदलाव की आंधी केवल पंजाब में दिखाई दी, बाकी के चार राज्यों की जनता ने मौजूदा सरकार पर अपना भरोसा जताया। हालांकि सीधे से दिखने वाले इन परिणामों के पीछे गहन विश्लेषण करें तो साफ नजर आ जाएगा कि भाजपा ने जैसे-तैसे अपनी साख को बचा लिया। वहीं, कांग्रेस की बची-कुची ताकत और क्षमता इन चुनावों में पस्त हो गईं। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की बात करें तो यहां भाजपा की वापसी तो हो गई। पर जिस तरह से मतदान के ठीक पहले भाजपा के खिलाफ वहां समाजवादी पार्टी ने माहौल बनाया, उसने कहीं न कहीं पार्टी की अंदरूनी कलह को उजागर कर दिया। योगी सरकार के तीन मंत्रियों सहित 11 विधायकों ने पार्टी छोड़ कर समाजवादी पार्टी का दामन थाम लिया। इतना ही नहीं अखिलेश यादव ने चुनाव जीतने के लिए जो घोषणा पत्र जनता के सामने रखा, उसने भी सीधे-सीधे योगी सरकार को मुश्किलों में फंसा दिया। लेकिन, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने जिन मुद्दों को जनता के समक्ष पूरी ताकत के साथ रखा, उसका तोड़ समाजवादी पार्टी ढूंढ नहीं पाई।
सस्ती बिजली, संविदा कर्मचारियों को नियमित करने का वादा, शिक्षामित्रों को फिर से सहायक अध्यापक बनाने और पुरानी पेंशन लागू करने जैसे बड़े चुनावी घोषणाएं भी योगी सरकार की कानून व्यवस्था के मंत्र को भेद नहीं पाई। योगी आदित्यनाथ उत्तर प्रदेश की जनता को यह समझाने में कामयाब हुए कि कानून व्यवस्था बेहतर रही तो प्रदेश का विकास तेजी से होगा। खासकर महिलाओं ने अखिलेश के किसी भी वादे से ज्यादा कानून व्यवस्था के मसले पर भरोसा जताया। आम चुनाव की तरह की प्रदेश के चुनाव में भी महिलाओं का समर्थन भाजपा को मिला। महिलाओं ने उनके लिए समर्पित केन्द्र और राज्य की योजनाओं को अपनाया। यहां तक की मुस्लिम महिलाओं ने भी भाजपा सरकार के पक्ष में वोट दिया। कोरोना काल के दौरान गरीबों के लिए मुफ्त राशन योजना, किसान सम्मान निधि और आवास योजनाओं ने भी चुनाव में भाजपा के लिए ऑक्सीजन का काम किया। इन योजनाओं ने लाभार्थियों के पास सीधे सहायता पहुंची और मोदी-योगी ने चुनावी रैलियों में इन कार्यों को गिनाया भी और भुनाया भी। इसी तरह से बहुजन समाज पार्टी के दलित वोट बैंक ने भी भाजपा को भरपूर समर्थन दिया। इनको साधने के लिए समाजवादी पार्टी ने पूरा जोर लगाया, उनका भरोसा नहीं जीत पाए। ऐसा इसलिए हुआ कि जब प्रदेश में सपा की सरकार थी तब सबसे ज्यादा दलितों पर अत्याचार के मामले सामने आए थे। इन जख्मों को सपाई भर नहीं पाए।
पंजाब की जनता ने बीते कुछ वर्षों में जिस तरह की राजनीतिक अस्थिरता और मौकापरस्त नेताओं की कारगुजारियों को देखा, उसकी पूरी खीझ इस चुनाव में उतार दी। प्रदेश ने गत चुनाव में जिस प्रचंड बहुमत से कांग्रेस की सरकार को चुना था उससे अपेक्षाएं काफी बढ़ गई थीं। लेकिन कांग्रेस में जिस तरह से सत्ता पाने का घमासान मचा उसने जनता को काफी आहत किया। प्रदेश के मतदाताओं ने प्रचंड बदलाव किया और आम आदमी पार्टी को मौका दे दिया। हालांकि चुनाव में आम आदमी पार्टी की स्थिति शुरू से मजबूत थी, पर चुनावी नतीजे इस हद तक उनके हक में जाएंगे इस बारे में तो किसी ने नहीं सोचा था। आप की पंजाब में तूफानी जीत भाजपा के लिए उतना बड़ा नुकसान नहीं है जितना बड़ा आघात कांग्रेस के लिए है।
आप सत्तारूढ़ दलों के लिए विकल्प बन रहा है। दिल्ली में ऐसा हो चुका है। वहां आप ने लगातार दो बार सरकार भी बनाई है। इस बार भी उसने कांग्रेस से एक और राज्य छीन लिया। इस चुनाव में यहां मुद्दों से ज्यादा नेताओं की खींचतान चर्चा में रही। चुनाव से कुुछ दिन पहले कांग्रेस ने चरणजीत चन्नी को मुख्यमंत्री बना दिया। इससे पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष नवजोतसिंह सिद्धू ही नाराज हो गए। पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने भी कांग्रेस छोडक़र नई पार्टी बना ली।
वे कांग्रेस के खिलाफ प्रचार करने लगे। कांग्रेस के दलित लीडर का दांव जनता को लुभा नहीं सका। बची-कुची कसर सिद्धू ने पूरी कर दी। उन्होंने लगातार ने ऐसे बयान दिए जो पार्टी के लिए परेशानी का सबब बन गए। चुनाव में उनके पाकिस्तान से प्रेम की बातें कई बार गूंजीं। अकाली दल नेता विक्रम मजीठिया ने कोर्ट से राहत के बाद उनके खिलाफ चुनाव लड़ा। चुनाव में आम आदमी पार्टी की यह अपील बहुत कारगर रही कि एक बार आप हमें आजमा कर देखें। पार्टी संयोजक अरविंद केजरीवाल ने सभी सभाओं में इस बात पर जोर दिया। पार्टी का दिल्ली मॉडल पंजाब के लोगों को बहुत भाया।
उत्तराखंड में इस बार पलायन और रोजगार का मुद्दा काफी गर्म रहा। साथ ही स्थानीय और राष्ट्रीय मुद्दों का असर साफ दिखा। पहाड़ी इलाकों में मोदी फैक्टर हावी रहा तो मैदानी इलाकों में महंगाई और किसान आंदोलन जैसे मुद्दे हावी रहे। अलग राज्य बनने के बाद पांच साल कांग्रेस और पांच साल भाजपा सरकार रहने की परंपरा भी टूटी। प्रदेश में पहली बार भाजपा की सरकार दोबारा बनी। वर्ष 2017 के स्पष्ट बहुमत के बावजूद प्रदेश की जनता को पांच साल में तीन-तीन मुख्यमंत्री मिल गए। चार साल तक त्रिवेंद्रसिंह रावत मुख्यमंत्री रहे। उनकी कार्यशैली से कार्यकर्ताओं और विधायकों
में नाराजगी बढ़ी तो तीरथसिंह रावत को सीएम बना दिया। लेकिन तीरथ की बयानबाजियों ने पार्टी को कई बार संकट में डाल दिया। पार्टी को लगा कि वे आगामी चुनाव में घातक साबित हो सकते हैं तो आंतरिक सर्वे और संगठन से मिले फीडबैक के बाद उनको हटा दिया। इसके बाद युवा नेता पुष्करसिंह धामी को चुनाव से आठ माह पहले मुख्यमंत्री बनाया। धामी ने सक्रियता दिखाई, जिससे पार्टी की तो वापसी हो गई मगर वे खुद चुनाव हार गए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपनी रैलियों में केदारनाथ के कायाकल्प का जोरशोर से प्रचार किया। चारधाम को जोडऩे वाले हाईवे को चार लेन करने, इसके विकास को जमकर भुनाया। मोदी कई बार केदारनाथ धाम का दौरा करने गए। नेपाल और चीन की सीमाओं तक सडक़ों और रेलवे लाइनों के निर्माण से विकास का खाका खींचा। कांग्रेस की गुटबाजी का भी भाजपा को पूरा फायदा मिला। पहले हरीश रावत और प्रदेश अध्यक्ष रहे प्रीतम सिंह के बीच शीतयुद्ध चला। रावत की प्रदेश प्रभारी देवेंद्र यादव से भी नहीं बनी। मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित नहीं किए जाने से भी वे क्षुब्ध थे। मामला दिल्ली आया तो राहुल गांधी ने उनके नेतृत्व में चुनाव लडऩे का ऐलान कर दिया, लेकिन उन्हें पंजाब की तरह मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं किया। इसका परिणाम ये रहा कि रावत चुनाव भी हार गए और उनकी अनदेखी से पार्टी को आठ से दस सीटों का नुकसान हुआ। इतना ही नहीं, चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस उपाध्यक्ष अकील अहमद ने बयान दिया कि कांग्रेस सत्ता में आई तो प्रदेश में मुस्लिम यूनिवर्सिटी बनाएंगे। इसे भाजपा ने चुनावी मुद्दा बनाया और वोटों का धु्रवीकरण करने में वे सफल रहे।
एक दशक से गोवा में सत्ता पर काबिज भारतीय जनता पार्टी ने दो विधानसभा चुनाव सबसे बड़े चेहरे मनोहर पर्रिकर के बिना लड़े। इस बार चुनाव में भाजपा की वापसी मुश्किल थी, लेकिन तृणमूल कांग्रेस और आम आदमी पार्टी ने उनकी जीत की हैट्रिक लगाने में बड़ा साथ दे दिया। दोनों ही दल पूरी ताकत के साथ गोवा में चुनाव लडऩे आ गए और कांग्रेस के वोटों में जमकर सेंध लगाई। ममता बनर्जी ने जहां एमजीपी के साथ चुनाव लड़ा, वहीं अरविंद केजरीवाल ने 40 में से 39 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे। दोनों दलों के चुनाव मैदान में होने से भाजपा के खिलाफ जो मतदान हुआ, वह दोनों पार्टियों में बंट गया। ऐस में यह स्पष्ट नजर आया कि यदि विपक्षी पार्टियां एकजुट होकर लड़तीं तो शायद भाजपा के लिए वापसी कठिन होती। गत चुनाव में भी कांग्रेस सबसे ज्यादा सीटें जीतकर भी सरकार नहीं बना पाई थी। कांग्रेस ने तो प्रत्याशियों को चुनाव बाद भाजपा में नहीं जाने की कसम भी दिलाई थी, पर उनके सारे प्रयास विफल साबित हो गए। भाजपा के दिवंगत नेता मनोहर पर्रिकर के बेटे उत्पल पर्रिकर भी केवल सुर्खियां बटोरने में सफल हो पाए। गोवा की जनता का उनको समर्थन नहीं मिला।
पूर्वोत्तर को दिल्ली की सत्ता के ज्यादा करीब लाने के चुनावी वादों और दावों के साथ भाजपा ने इस बार चुनाव लड़ा। भाजपा का यह दांव जनता को भाया और दूसरी बार सरकार बनाने का मौका दिया। मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह ने चुनाव में जीत हासिल की। सबसे ज्यादा चौंकाने वाले परिणाम यहां जेडीयू ने दिए। जनता दल (यूनाइटेड) ने पांच सीटों को जीतकर सबको चौंका दिया। बिहार और केंद्र सरकार की सहयोगी भाजपा व जेडीयू इस बार सरकार बनाने में साथ रहेगी। इस चुनाव में भाजपा के विकास के एजेंडे के विरुद्ध कांग्रेस ने मणिपुर की संस्कृति का सम्मान नहीं करने का आरोप लगाया और सभी रैलियों में इसका प्रचार भी किया। लेकिन यहां की जनता ने बीरेन सरकार पर भरोसा जताया और उनकी सत्ता में वापसी की। साथ कांग्रेस के दावों को फुस्स करते हुए 2002 से 2017 तक कांग्रेस के मुख्यमंत्री रहे ओकराम इबोबी सिंह को खारिज कर दिया। हालांकि इबोबी चुनाव तो जीत गए पर पार्टी की वापसी नहीं करा सके।
राजेश कसेरा
(वरिष्ठ पत्रकार, लेखक, विश्लेषक, समसामयिक और राजनीतिक विषयों के जानकार)