रोजाना एक कविता: आज पढ़िए शलभ श्रीराम सिंह को जिनकी कविताएं हमारी चेतना को परिष्कृत कर एक आवाज में तब्दील हो जाती हैं

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शलभ श्रीराम सिंह… युयुत्सावादी कविता का जनक जिसने प्रेम की बजाय संघर्ष या युद्ध को अपनी कविता का आधार बनाया। उसके शब्द किसी हथौड़े की तरह हमारी चेतना पर पड़ते है और हमें अंदर तक झिंझोड़ डालते हैं। आज इंडिया ग्राउंड रिपोर्ट की ‘रोजाना एक कविता’ श्रृंखला में आप पाठकों के बीच पेश है शलभ श्रीराम सिंह की चुनिंदा कविताएं जिसका पोस्टर बनाया है रवि कुमार ने।  शलभ श्रीराम सिंह को पढ़ना इसीलिए भी जरुरी है क्योंकि आज उनका जन्मोत्सव है। पढ़िएगा।

Poster

नफ़स-नफ़स क़दम-क़दम
बस एक फ़िक्र दम-ब-दम
घिरे हैं हम सवाल से हमें जवाब चाहिए
जवाब-दर-सवाल है के इन्क़लाब चाहिए
इन्क़लाब ज़िन्दाबाद,
ज़िन्दाबाद इन्क़लाब – २
जहाँ आवाम के ख़िलाफ़ साज़िशें हो शान से
जहाँ पे बेगुनाह हाथ धो रहे हों जान से
जहाँ पे लब्ज़े-अमन एक ख़ौफ़नाक राज़ हो
जहाँ कबूतरों का सरपरस्त एक बाज़ हो
वहाँ न चुप रहेंगे हम
कहेंगे हाँ कहेंगे हम
हमारा हक़ हमारा हक़ हमें जनाब चाहिए
जवाब-दर-सवाल है के इन्क़लाब चाहिए
इन्क़लाब ज़िन्दाबाद,
इन्क़लाब इन्क़लाब -२

यक़ीन आँख मूँद कर किया था जिनको जानकर
वही हमारी राह में खड़े हैं सीना तान कर
उन्ही की सरहदों में क़ैद हैं हमारी बोलियाँ
वही हमारी थाल में परस रहे हैं गोलियाँ
जो इनका भेद खोल दे
हर एक बात बोल दे
हमारे हाथ में वही खुली क़िताब चाहिए
घिरे हैं हम सवाल से हमें जवाब चाहिए
जवाब-दर-सवाल है के इन्क़लाब चाहिए
इन्क़लाब ज़िन्दाबाद,
ज़िन्दाबाद इन्क़लाब

वतन के नाम पर ख़ुशी से जो हुए हैं बेवतन
उन्ही की आह बेअसर उन्ही की लाश बेकफ़न
लहू पसीना बेचकर जो पेट तक न भर सके
करें तो क्या करें भला जो जी सके न मर सके
स्याह ज़िन्दगी के नाम
जिनकी हर सुबह और शाम
उनके आसमान को सुर्ख़ आफ़ताब चाहिए
घिरे हैं हम सवाल से हमें जवाब चाहिए
जवाब-दर-सवाल है के इन्क़लाब चाहिए
इन्क़लाब ज़िन्दाबाद,
ज़िन्दाबाद इन्क़लाब -2

तसल्लियों के इतने साल बाद अपने हाल पर
निगाह डाल सोच और सोचकर सवाल कर
किधर गए वो वायदे सुखों के ख़्वाब क्या हुए
तुझे था जिनका इन्तज़ार वो जवाब क्या हुए
तू इनकी झूठी बात पर
ना और ऐतबार कर
के तुझको साँस-साँस का सही हिसाब चाहिए
घिरे हैं हम सवाल से हमें जवाब चाहिए
नफ़स-नफ़स क़दम-क़दम बस एक फ़िक्र दम-ब-दम
जवाब-दर-सवाल है के इन्क़लाब चाहिए
इन्क़लाब ज़िन्दाबाद,
ज़िन्दाबाद इन्क़लाब

नफ़स-नफ़स, क़दम-क़दम
बस एक फ़िक्र दम-ब-दम
घिरे हैं हम सवाल से, हमें जवाब चाहिए
जवाब दर-सवाल है कि इन्क़लाब चाहिए
इन्क़लाब ज़िन्दाबाद
ज़िन्दाबाद इन्क़लाब
जहाँ आवाम के ख़िलाफ साज़िशें हों शान से
जहाँ पे बेगुनाह हाथ धो रहे हों जान से
वहाँ न चुप रहेंगे हम, कहेंगे हाँ कहेंगे हम
हमारा हक़ हमारा हक़ हमें जनाब चाहिए
इन्क़लाब ज़िन्दाबाद
ज़िन्दाबाद इन्क़लाब

अपने समन्दरों को पाटने का समय है
अपने पहाड़ों को ढोने का
अपने अन्धेरों को पी जाने का समय है यह।

बीमार ख़याल लोगों को —
दुनिया से बाहर निकाल देने का समय है,
समय है स्वस्थ ज़िन्दगी के सपनों में रंग भरने का,
अलग-अलग धन्धों में लगे लोगों के
एक साथ उठने का समय है यह ।

आसमान की बदलती रंगत के ख़तरों से —
सावधान होने का समय है,
समय है एक साथ सोचने और बोलने का,
पृथ्वी को एकजुट होकर बचाने का समय है यह ।

सांसों पर जवान उम्मीदों के लश्कर उतारने का समय है,
समय है थकान और पस्तहिम्मती के ख़िलाफ़
लामबन्द होने का
मौत के ख़िलाफ़ ख़ुद-ब-ख़ुद
पैदा होने का समय है यह ।