
अब हर शाम कोई हर दस मिनट में फ़ोन करके नहीं पूछेगा …. कहाँ पहूँची? और फिर झुंझला कर नहीं कहेगा …. आधे घंटे में यहीं तक पहूँची हो…..मेरे आने के इंतजार में सप्ताह को तीन दिनों में कोई समेटेगा भी नहीं….
और न ही पूछेगा क्या खाओगी, क्या बनवा कर रखूं ? मैं अब इस तरह से पूछने वाले सभी रिश्तों से बाहर निकल गयी, जिसकी तुम अंतिम कड़ी थी…तुम्हे खाना बनाने का कभी शौक नहीं था..और बनाया भी नहीं….. हां पर कोई सब्जी कैसे बनेगी उसकी विधि ऐसे बताती थी जैसे पता नहीं कितने सालों से बनाती आई हो……. टेलीफोन पर आती मेरी आवाज़ के हल्के उतार चढ़ाव को पता नहीं तुम कैसे पढ़ लेती थी….मेरी छपी हुई कहानियों, कविताओं , आर्टिकल को मुझसे छुपा कर अपने पास रखती, और उन्हें जब दूसरों को दिखाती थी वो चेहरे के तुम्हारे भाव यादों का वो बक्सा है, जिसे मैं जब भी मन उदास होता है खोल कर देख लेती हूँ।
मैं देख रही थी कुछ समय से तुम सालों को ऐसे देख रही थी जैसे सामान लेकर गाड़ी के इंतज़ार में कोई स्टेशन पर खड़ा हो….. पर तुम्हारी उम्र तो इतनी ज्यादा भी नहीं थी…इतनी भी जल्दी क्या थी…पर तुम कई बार ये कहने लगी थी..मेरा जीने का मकसद क्या है…..फिर मैं तुम्हारी माँ बनकर कुछ यूहीं से मकसद पकड़ा देती…… कई बार तुम कहती तुम्हारा ये काम हो जाये तो मैं चैन से मर सकूं……..फिर तुम्हारी बात को हल्का करने के लिए मैं कहती…इसी लिए तो ये काम हम पूरा नहीं होने दे रहें ताकि तुम ज़िंदा रहो. ………..तुम हमेशा मुझमें ज़िंदा रहोगी…