
आज काफी दिनों बाद कुछ लिख रहा हूँ.. शायद बेकल दर्द यादों के दरख्तों से गुलज़ार बागबां की खामोशियों को चीर कुछ कहना चाहती हो या शायद अपनों से शिकस्त खाया कोई ख्याब कायनात के हर जर्रे से अपने नाकाम जुस्तजू की दास्तान कहने को बेताब हो…काश ऐसा होता कि बेकल दर्द की यह आवाज़ घर के बाहरी चबूतरे पर खामोश बैठी उस “पगली” के कानों से गुजर जाती या ऐसा होता कि हवा का एक झोंका चलता और पीपल के पेड़ से दर्द के हर्फ़ में भीगा कोई पत्ता उसके क़दमों में आ गिरता… उफ़…ये कल्पना..ये तसव्वुरात…
आसमानी तलहटी पर तसव्वुरात के न जाने कितने अक्स उभरते है और फिर मिट जाते हैं। मिटे तसव्वुरात की निशानियां एक अजीब सी ख़ामोशी छोड़ जाती हैं अंतर्मन में कहीं जो अक्सर अक्षरों की शक्ल में ऊकेर दी जाती हैं।
…और शायद यही आलम होगा जब अमृता ने लिखा होगा …
मुझे वह समय याद है —
जब धूप का एक टुकडा
सूरज कि उंगली थाम कर
अंधेरे का मेला देखता
उस भीड़ में खो गया …
सोचती हूँ : सहम का
और सूनेपन का एक नाता है
मैं इसकी कुछ नही लगती
पर इस खोये बच्चे ने
मेरा हाथ थाम लिया ..
तुम कहीं नही मिलते
हाथ छु रहा है
एक नन्हा सा गर्म श्वास
न हाथ से बहलता है
न हाथ छोड़ता है ..
अंधेरे का कोई पार नही
मेले के शोर में भी
एक खामोशी का आलम है
और तुम्हारी याद इस तरह
जैसे के धूप का टुकडा ….