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सरगोशियां: काफिर

आज बसंत पंचमी है। हेट स्पीच और एक्ट का दौर है। मुझे अम्मी के किस्से याद आ रहे हैं। बेहद गंभीर और श्रद्धा में डूबा स्वर। जब करबद्ध होकर वेदनारायण बाबू वंदना करते, ‘मां शारदे कहां तू, वीणा बजा रही है, किस मंजू ज्ञान से तू जग को लुभा रही है’, तो उनके सुरीले कंठ में हम छात्र भी झूमने लगते। दसवीं-ए के कक्ष में बहुत ही सात्विक ढंग से सरस्वती पूजा होती। बात शेरघाटी के रंगलाल हाईस्कूल की है, जो रंगधार स्कूल के नाम से मशहूर था।

हालांकि रंगधार कोई न हुआ। होने का ढोंग कुछ लंपट छात्र जरूर करते थे। और आपसी लड़ाई को अक्सर हिंदू-मुस्लिम रंग देने का प्रयास करते। लेकिन स्कूल की सरस्वती पूजा और मिलाद ऐसे मौके होते कि सब स्कूल के प्रेमिल लाल रंग में रंग जाते। वो मेरे लिए पहला अवसर था, इस स्कूल की सरस्वती पूजा में शामिल होने का। जब हमें दोने में प्रसाद मिला। हमने नहीं खाया। उसे संभाले-संभाले घर आए। ये आदत रही, मिलाद की मिठाई भी घर ही लेकर आते रहे। लेकिन प्रसाद लेकर आना। अंदर-अंदर डर था। रायगढ़ का बचपन अलग था, अब्बी ने कभी प्रसाद खाने से रोक-टोक न की थी, पर अम्मी।

ख़ैर। जब आंगन में पहुंचे, तो सकपकाना देख अम्मी ने घुड़का, ‘क्या छुपा रहे हो।’ बोलती बंद। प्रसाद। ज्यों ही दोना आगे बढ़ाया, अम्मी ने लपक लिया। और उसमें रखी बेर, केला, सेव खाने लगीं। बाद में बोली, ‘टीचर्स ट्रेनिंग के दौरान एक मुस्लिम टीचर ने जब प्रसाद लेने से इनकार कर दिया, और मैंने ले लिया था, तो उसने बाद में मुझे काफ़िर कह दिया। जब उसे समझाया कि किसी का दिल न तोड़ो, ये हमारी हदीस बताती है। आप प्रसाद खातीं, न खातीं। कोई कितना खुलूस से दे रहा है, उसे लेने में क्या हर्ज है। और काफ़िर तो तब होंगे, जब एक खुदा को छोड़ दूसरे को खुदा मान लें।’ इस प्रसंग को बताने के बाद अम्मी ने कहा, ‘तुम्हारा खौफ़ वाजिब था। लेकिन अगर नियत साफ़ है, तो प्रसाद खाना गलत नहीं।’

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