
ये उन दिनों की बात है जब कोसों दूर ‘इस्कूल’ के फासले क़दमों से तय हुआ करते थे। पगडंडी से लगे खेतों में पसरी गेहूं की बालियों को सहलाते, मटर चुराकर खाते, गलियों में उछलकूद करते कब इस्कूल आ जाता, पता ही नहीं चलता। इस्कूल की गेट पर एक ताऊ लठ्ठा (गुड़दानी) बेचा करते थे। मै हर रोज वहां खड़ा हो जाता। उसकी खुशबु को अपनी सांसों में उतारकर खुद को तृप्त करने की कोशिश करता। जब जेबें उदास हैं तो आत्मतृप्ति का ये हुनर खुद बा खुद आ जाता है।
फरवरी के दूसरे सप्ताह का अंतिम दिन था और हमारे सत्र का भी। अगले दिन लंबी छुट्टी होने वाली थी और उसके बाद परीक्षा। उन दिनों दसवीं की तरह आठवीं का भी सेंटर जाया करता था। उस पर सितम ये कि लड़कियों को अलग इस्कूल में भेजा जाता और लड़कों को अलग। हॉल टिकट लेने के लिए पूरे इस्कूल में अफरा तफरी मची थी और मैं आत्मतृप्ति में लगा था। तुम अचानक तेजी से आई और जोर का धक्का दिया था मुझे। मुंह के बल गिरा था मैं और तुम खिलखिलाकर हंस पड़ी थी।
सॉरी कहने का यही कस्बाई सलीका था उन दिनों। अंग्रेजीयत की आमद हमारी सरहद में अभी नहीं हो पाई थी। 25- 25 पैसे में लठ्ठे (चॉकलेटी सा फिंगर चिप्स जैसा) का दो पैकेट लिया उस दिन तुमने और एक पैकेट मुझे थमा दिया। ओ तुम्हारी दरियादिली थी या सहज प्रेम की पहली अभिव्यकि्त , मैं आज तक नहीं जान सका। महीनों बाद 25 पैसे जुटा पाया। सोचा अगले सत्र में तुम्हें दे दूंगा। अगला सत्र आया मगर तुम नहीं आई। दिन महीने में बदले और महीने साल में तब्दील हो गए। तुम्हारा पता नहीं था मेरे पास…
आज फिर फरवरी के दूसरे सप्ताह का अंतिम दिन है। सुरज की कदमताल के साथ फिजा में घुलती जा रही है तुम्हारे ख्यालों की गुलाबी खुश्बू. अच्छा सुनो, वो आम का पेड़ याद है तुम्हे जिसकी छांव में मास्साब क्लास लिया करते थे. उथर जाना हुआ तो उसकी जड़ों को खोदना. वहीं छुपा रखी है मैंने तुम्हारे मुकद्दस मोहब्बत के पहले अभिव्यकि्त की आखिरी निशानी…तुम्हारा २५ पैसा…बामुश्किल इकट्ठा किया था…जेबें उसका भार उठाने में नाकाम हो गई थी और भारी जेबों से अय्याशियां की जाती है, मोहब्बत नहीं…