सरगोशियां : मन क्यूं “बहका”

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Sargoshis

“ये रांझा के किस्से, ये मजनू की बातें,
अलग तो नहीं हैं, मेरी दास्तां से”
ठीक ही कहा है मुहम्मद रफ़ी साहब ने आज कल सारे प्रेमी अपने आप को रांझा और मजनू से कहीं बढ़कर ही समझते हैं, तो क्या हुआ वो अपने प्यार के लिए जान नहीं दे पाए, पर उस एहसास को तो भरपूर जिया, जो कभी उन्होंने जिया था। वे तो पागल थे !सच में, अगर पागल ना होते, तो एक ही के पीछे क्यों अपना जीवन बर्बाद करते।
आज कल के मजनू थोड़े अलग से होते हैं। ये real मजनू के जैसे आहे नहीं भरते रात रात भर व्हाट्सएप पर चैट करते हैं।
सुबह होते ही सूट बूट में सज धज कर निकल पड़ते हैं अपनी लैला से मिलने और तब तो और भी आनंद आ जाता है जब इनकी लैला किसी और की बाहों में होती है, किसी और को अपने प्रेम की शायरियां सुना रही होती है, उसी पल इनका सारा प्रेम हवा में फुर्र हो जाता है।
और फिर तलाश होती है एक नई लैला या फिर हीर की।
“हुंह तो क्या हुआ, वो क्या समझती है कि मैं मर जाऊंगा, उसके प्यार में! मुझे क्या पागल समझ रखा है? जाती है तो जाए, मैं क्या उससे कम हूं, मेरे पीछे तो वैसे ही कितनी पड़ी हैं। और पूरी जद्दोजहद से तलाश होती है एक नई हीर या लैला की।
जैसे ही नई मिल गई फिर तो क्या बात है! जिंदगी जैसे फिर से रंगीन हो गई, फिर वहीं रात रात भर चैटिंग शैटिंग, फिर वही परफ्यूम की खुशबू। ऐसा लगता है इनसे बढ़कर दुनिया में और कोई अमीर है ही नहीं।
सारे काम अपनी प्रेमिका के मन का ही करते हैं। वो शाहरूख खान वाली स्टाइल…
“जमीं को आसमां बनाऊं,
सितारों से सजाऊं,
अगर तुम कहो…मैं कोई ऐसा गीत…

घर पर मां ने डांटा तो कोई परवाह नहीं, बाप ने कुछ कहा कोई फर्क नहीं, जनाब पर तो इश्क का बुखार चढ़ा है।
खाना खाने की सुध नहीं, कोई काम ठीक से नहीं, हर वक्त बस महबूब का ही चेहरा दिखाई देता है। हर जगह बस वो ही नजर आती है। हर दिन एक नया ख्वाब और हर रोज उसे पूरा करने की उम्मीद बस इसी में उम्र का एक महत्वपूर्ण पड़ाव पार हो जाता है।
फिर अचानक वह दिन भी आता है ,जब शादी हो जाती है। फिर भी उम्मीद का दामन नहीं छोड़ता। उसके लैला और हीर की तलाश शुरू ही रहती है।
और उसे उसकी लैला फिर मिल जाती है। लेकिन उसका मन नहीं भरता। वह तो आजाद परिंदा है खुले आसमान का, सो उड़ता ही रहता है कभी इस डाली, कभी उस डाली।