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रोजाना एक कविता: आज पढ़िए धूमिल को जिनकी कविताओं में झलकता था व्यवस्था का विरोध

सुदामा पाण्डेय ‘धूमिल’… हिंदी कविता के एंग्री यंग मैन। एक क्रांतिकारी कवि जिसकी कविता में आज़ादी के सपनों के मोहभंग की पीड़ा और आक्रोश की सबसे सशक्त अभिव्यक्ति मिलती है। एक कवि जिसकी कविताओं में आक्रामकता है और व्यवस्था का विरोध भी। उनके जन्मोत्सव पर आज इंडिया ग्राउंड रिपोर्ट की ‘रोजाना एक कविता’ श्रृंखला में आप पाठकों के बीच पेश है सुदामा पाण्डेय ‘धूमिल’ की चुनिंदा कविताएं।

पेड़ों की तरफदारी के लिए, ज़मीन से बाहर निकल पड़ें

हवा गरम है
और धमाका एक हलकी-सी रगड़ का
इंतज़ार कर रहा है
कठुआये हुए चेहरों की रौनक
वापस लाने के लिए
उठो और हरियाली पर हमला करो
जड़ों से कहो कि अंधेरे में
बेहिसाब दौड़ने के बजाय
पेड़ों की तरफदारी के लिए
ज़मीन से बाहर निकल पड़े
बिना इस डर के कि जंगल
सूख जाएगा
यह सही है कि नारों को
नयी शाख नहीं मिलेगी
और न आरा मशीन को
नींद की फुरसत
लेकिन यह तुम्हारे हक में हैं
इससे इतना तो होगा ही
कि रुखानी की मामूली-सी गवाही पर
तुम दरवाज़े को अपना दरवाज़ा
और मेज़ को
अपनी मेज कह सकोगे।

हत्यारी संभावनाओं के नीचे

मुर्गे की बांग पर
सूरज को टांगकर
सो जाओ हत्याओं के खिलाफ
ओढ़कर
निकम्मी आदतों का लिहाफ।
वर्ना तुम कर भी क्या सकते हो
क्योंकि यही वक्त है जबकि सिरहाने
घड़ी के अलार्म का टूटा हुआ होना भी-
एक अदद सुविधा है।
वर्ना तुम कर भी क्या सकते हो
वर्ना तुम कर भी क्या सकते हो
यदि पड़ोस की महिला का एक बटन
तुम्हारी बीवी के ब्लाउज से
(कीमत में ) बड़ा है
और प्यार करने से पहले
तुम्हें पेट की आग से होकर गुजरना पड़ा है।
धूप कमरे में खड़ी है
फिर भी तुम चाहो तो यह करो
फिर भी तुम चाहो तो यह करो
कि
अपने इतवार में
घुसी हुई बुढ़िया को
बाहर ढकेल दो
चाहे वह तुम्हारी
गृहस्थी ही क्यों न हो
धूप कमरे में खड़ी है
अपनी देह
स्वप्नों की दीवार बनने से बचाओ
वक्त के चौकस पंजों में
उम्र की गायब शक्लों को समेटकर
खाल के नीचे घुस जाओ
तुमने जंगल से बहस की है
और भूल जाओ
कि नींद में
पेड़ के लिए
तुमने जंगल से बहस की है

चीख जो अंधेरे में
तुमने सुनी है सिर्फ
तुमने ही नहीं सबने सुनी है
सबने उसे ढाल पर गिरते हुए देखा है
सबने उसे ढाल पर
गिरते हुए देखा है
और महज एक देर
सबकी आंखों में
गुस्सा गुर्राया है, आंधीनुमा
बेचैनी चेहरों पर छाई है
सबने महसूस किया- कैसा अन्याय है ।
पत्तों का हरापन डर की वजह है
किंतु वहां सामने
कोई नहीं आया है
किसी ने नहीं कहा कि जुर्म की जगह
यह है और
पत्तों का हरापन डर की वजह है ।
भीतर की बत्तियां बुझाकर
किसी ने नहीं कहा-
हर आदमी
भीतर की बत्तियां बुझाकर
पड़े-पड़े सोता है
क्योंकि वह समझता है
कि दिन की शुरुआत का ढंग
सिर्फ हारने के लिए होता है
हमदर्दी
चेहरों से आंसू और चमड़ा
बटोरती है
उम्मीद के चौखटों पर
उम्मीद के चौखटों पर
चुम्बन की तेल लगी कीलों से
तसल्ली के जुमले टांकती है

और फिर दूसरे मरीज़ की तलाश में
क्षमाहीन लोगों की भीड़ में
वापस चली जाती है

और तुम पाते हो कि तुम अकेले
रह गए हो
हारी हुई चीजों ने
अपने को चुनौतियों के सामने से
हटा लिया है और
अब सवालों की ओट में
खड़ी होकर
तुम्हारे लौटने का इंतजार
कर रही हैं
लौट जाओ
लौट जाओ
इससे पहले कि तने हुए हाथों के
ठूंठ पर
रोशनी की चील बीट कर दे
असमय का साहस
आनेवाले दिनों को
चिथड़ों और सड़े हुए दांतों से भर दे
तुम वापस चले जाओ
इससे पहले कि
ईमानदारी तुम्हें उस जगह ले जाए
जहां बेटा तुम्हें बाप कहते हुए
शरमाए,
तुम वापस चले जाओ
हत्यारी संभावनाओं के नीचे
सहनशीलता का नाम
आज भी हथियारों की सूची में नहीं है
रात खत्म हो चुकी है
और वह सुरक्षित नहीं है
जिसका नाम हत्यारों की सूची में नहीं है।

मेरे लिये, हर आदमी एक जोड़ी जूता है


राँपी से उठी हुई आँखों ने मुझे
क्षण-भर टटोला
और फिर
जैसे पतियाये हुये स्वर में
वह हँसते हुये बोला-
बाबूजी सच कहूँ-मेरी निगाह में
न कोई छोटा है
न कोई बड़ा है
मेरे लिये, हर आदमी एक जोड़ी जूता है
जो मेरे सामने
मरम्मत के लिये खड़ा है।
और असल बात तो यह है
कि वह चाहे जो है
जैसा है,जहाँ कहीं है
आजकल
कोई आदमी जूते की नाप से
बाहर नहीं है
फिर भी मुझे ख्याल है रहता है
कि पेशेवर हाथों और फटे जूतों के बीच
कहीं न कहीं एक आदमी है
जिस पर टाँके पड़ते हैं,
जो जूते से झाँकती हुई अँगुली की चोट छाती पर
हथौड़े की तरह सहता है।
यहाँ तरह-तरह के जूते आते हैं
और आदमी की अलग-अलग ‘नवैयत’
बतलाते हैं
सबकी अपनी-अपनी शक्ल है
अपनी-अपनी शैली है
मसलन एक जूता है:
जूता क्या है-चकतियों की थैली है
इसे एक आदमी पहनता है
जिसे चेचक ने चुग लिया है
उस पर उम्मीद को तरह देती हुई हँसी है
जैसे ‘टेलीफ़ून ‘ के खम्भे पर
कोई पतंग फँसी है
और खड़खड़ा रही है।
‘बाबूजी! इस पर पैसा क्यों फूँकते हो?’
मैं कहना चाहता हूँ
मगर मेरी आवाज़ लड़खड़ा रही है
मैं महसूस करता हूँ-भीतर से
एक आवाज़ आती है-’कैसे आदमी हो
अपनी जाति पर थूकते हो।’
आप यकीन करें,उस समय
मैं चकतियों की जगह आँखें टाँकता हूँ
और पेशे में पड़े हुये आदमी को
बड़ी मुश्किल से निबाहता हूँ।
एक जूता और है जिससे पैर को
‘नाँघकर’ एक आदमी निकलता है
सैर को
न वह अक्लमन्द है
न वक्त का पाबन्द है
उसकी आँखों में लालच है
हाथों में घड़ी है
उसे जाना कहीं नहीं है
मगर चेहरे पर
बड़ी हड़बड़ी है
वह कोई बनिया है
या बिसाती है
मगर रोब ऐसा कि हिटलर का नाती है
‘इशे बाँद्धो,उशे काट्टो,हियाँ ठोक्को,वहाँ पीट्टो
घिस्सा दो,अइशा चमकाओ,जूत्ते को ऐना बनाओ
…ओफ्फ़! बड़ी गर्मी है’
रुमाल से हवा करता है,
मौसम के नाम पर बिसूरता है
सड़क पर ‘आतियों-जातियों’ को
बानर की तरह घूरता है
गरज़ यह कि घण्टे भर खटवाता है
मगर नामा देते वक्त
साफ ‘नट’ जाता है
शरीफों को लूटते हो’ वह गुर्राता है
और कुछ सिक्के फेंककर
आगे बढ़ जाता है
अचानक चिंहुककर सड़क से उछलता है
और पटरी पर चढ़ जाता है
चोट जब पेशे पर पड़ती है
तो कहीं-न-कहीं एक चोर कील
दबी रह जाती है
जो मौका पाकर उभरती है
और अँगुली में गड़ती है।
मगर इसका मतलब यह नहीं है
कि मुझे कोई ग़लतफ़हमी है
मुझे हर वक्त यह खयाल रहता है कि जूते
और पेशे के बीच
कहीं-न-कहीं एक अदद आदमी है
जिस पर टाँके पड़ते हैं
जो जूते से झाँकती हुई अँगुली की चोट
छाती पर
हथौड़े की तरह सहता है
और बाबूजी! असल बात तो यह है कि ज़िन्दा रहने के पीछे
अगर सही तर्क नहीं है
तो रामनामी बेंचकर या रण्डियों की
दलाली करके रोज़ी कमाने में
कोई फर्क नहीं है
और यही वह जगह है जहाँ हर आदमी
अपने पेशे से छूटकर
भीड़ का टमकता हुआ हिस्सा बन जाता है
सभी लोगों की तरह
भाष़ा उसे काटती है
मौसम सताता है
अब आप इस बसन्त को ही लो,
यह दिन को ताँत की तरह तानता है
पेड़ों पर लाल-लाल पत्तों के हजा़रों सुखतल्ले
धूप में, सीझने के लिये लटकाता है
सच कहता हूँ-उस समय
राँपी की मूठ को हाथ में सँभालना
मुश्किल हो जाता है
आँख कहीं जाती है
हाथ कहीं जाता है
मन किसी झुँझलाये हुये बच्चे-सा
काम पर आने से बार-बार इन्कार करता है
लगता है कि चमड़े की शराफ़त के पीछे
कोई जंगल है जो आदमी पर
पेड़ से वार करता है
और यह चौकने की नहीं,सोचने की बात है
मगर जो जिन्दगी को किताब से नापता है
जो असलियत और अनुभव के बीच
खून के किसी कमजा़त मौके पर कायर है
वह बड़ी आसानी से कह सकता है
कि यार! तू मोची नहीं ,शायर है
असल में वह एक दिलचस्प ग़लतफ़हमी का
शिकार है
जो वह सोचता कि पेशा एक जाति है
और भाषा पर
आदमी का नहीं,किसी जाति का अधिकार है
जबकि असलियत है यह है कि आग
सबको जलाती है सच्चाई
सबसे होकर गुज़रती है
कुछ हैं जिन्हें शब्द मिल चुके हैं
कुछ हैं जो अक्षरों के आगे अन्धे हैं
वे हर अन्याय को चुपचाप सहते हैं
और पेट की आग से डरते हैं
जबकि मैं जानता हूँ कि ‘इन्कार से भरी हुई एक चीख़’
और ‘एक समझदार चुप’
दोनों का मतलब एक है-
भविष्य गढ़ने में ,’चुप’ और ‘चीख’
अपनी-अपनी जगह एक ही किस्म से
अपना-अपना फ़र्ज अदा करते हैं।

हर ईमान का एक चोर दरवाज़ा होता है

बाड़ियाँ फटे हुए बाँसों पर फहरा रही हैं
और इतिहास के पन्नों पर
धर्म के लिए मरे हुए लोगों के नाम
बात सिर्फ़ इतनी है
स्नानाघाट पर जाता हुआ रास्ता
देह की मण्डी से होकर गुज़रता है
और जहाँ घटित होने के लिए कुछ भी नहीं है
वहीं हम गवाह की तरह खड़े किये जाते हैं
कुछ देर अपनी ऊब में तटस्थ
और फिर चमत्कार की वापसी के बाद
भीड़ से वापस ले लिए जाते हैं
वक़्त और लोगों के बीच
सवाल शोर के नापने का नहीं है
बल्कि उस फ़ासले का है जो इस रफ़्तार में भी
सुरक्षित है
वैसे हम समझते हैं कि सच्चाई
हमें अक्सर अपराध की सीमा पर
छोड़ आती है
आदतों और विज्ञापनों से दबे हुए आदमी का
सबसे अमूल्य क्षण सन्देहों में
तुलता है
हर ईमान का एक चोर दरवाज़ा होता है
जो सण्डास की बगल में खुलता है
दृष्टियों की धार में बहती नैतिकता का
कितना भद्धा मज़ाक है
कि हमारे चेहरों पर
आँख के ठीक नीचे ही नाक है।

रोटी और संसद

एक आदमी
रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है
वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूँ–
‘यह तीसरा आदमी कौन है ?’
मेरे देश की संसद मौन है।

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