रांची : राज्य का आदिवासी समाज अलग-अलग तरीकों से होली मनाता है। कहीं पानी से होली खेलने की परंपरा है तो कहीं फगुआ काटने की परंपरा है। होली प्रेम का त्योहार है। यह शिकवे दूर करने का भी त्योहार है। हालांकि, वक्त के साथ होली पर फैशन का रंग भी चढ़ा है। बड़े शहरों में मास्क, मॉडर्न पिचकारियां और गुलाल भरे पटाखे चलन में आ गये हैं। डीजे की धुन पर रेनवाटर डांस का कल्चर शुरू हो गया है।लेकिन गांव-देहात में आज भी गोबर, कीचड़, रंग और गुलाल ही नफरत मिटा रहे हैं।
आदिवासी समाज में होली का त्योहार मनाने का चलन नहीं है लेकिन बदलते दौर के साथ आदिवासी समाज के लोग भी होली खेलने लगे हैं। हालांकि, खास पकवान बनाने का कोई चलन नहीं है। ‘संथाल’ समाज में बाहा पर्व मनाया जाता है। कहीं-कहीं होली के पहले तो कहीं होली के बाद इस पर्व को मनाया जाता है। इसे फूलों का पर्व भी कहा जाता है। गांव के लोग जाहेरथान नामक पूजास्थल में साल के फूल और पत्तों को कान में लगाकर पारंपरिक हथियारों की पूजा करते हैं और बाद में पानी से होली खेलते हैं। यह अनूठी होली है। इसमें महिला और पुरुष अलग-अलग होली खेलते हैं। फिर पारंपरिक वस्त्र पहनकर नाच गान करते हैं, खुशियां मनाते हैं। यह पर्व प्रकृति से जुड़ा है।
‘हो’ आदिवासी बहुल सिंहभूम में उपरूम जुमूर पर्व मनाया जाता है। आमतौर पर इसे जनवरी माह में मनाया जाता है। गांव में साल के वृक्ष के डाल की पूजा होती है। इसके बाद हो समाज के लोग एक जगह इकट्ठा होकर एक-दूसरे को अपना परिचय देते हैं। फिर नाच-गान करते हैं। यह पर्व संस्कृति से खुद को जोड़े रखने और आपस में पहचान कायम रखने का महत्व बताता है। ‘उरांव’ समाज में फगुआ काटने की प्रथा है। होली के एक दिन पहले पूर्णिमा की रात को सेमल की डाली जलाई जाती है।
मान्यता है कि सारु पहाड़ स्थित सेमल के पेड़ पर दो गिद्धों का डेरा था, जो बच्चों को निवाला बना लेते थे। समाज के लोगों ने आराध्य से बचाने की फरियाद की तो वह खुद आए और दोनों गिद्धों का वध किया। इसी वजह से सेमल की डाली को जलाकर समाज के लोग जंगल में जाते हैं और यह देखते हैं कि उनके ईर्द-गिर्द किस तरह के पशु-पक्षी वास कर रहे हैं।
लोहरदगा के सेनहा प्रखंड में है बरही चटकपुर गांव। यहां ढेला मार होली होती है। होलिका दहन के दिन पूजा के बाद गांव के मैदान में पुजारी एक खंभा गाड़ते हैं। दूसरे दिन उस खंभा को उखाड़ने और छूने की होड़ मच जाती है। दूसरी तरफ ऐसा करने से रोकने के लिए गांव के लोग मिट्टी के ढेलों की बरसात करने लगते हैं। मान्यता है कि ढेला मार होली के दौरान कोई चोटिल नहीं होता। अब इस अनोखी होली को देखने के लिए आसपास के गांव के लोग भी जुटने लगे हैं। कहा जाता है कि दामादों के लिए इस परंपरा की शुरुआत हुई थी।