
एक दिन बुद्ध (mahatma buddh) के प्रिय शिष्य आनंद ने बुद्ध से भिक्षाटन के लिए आज्ञा मांगी। मठ के सभी भिक्षुओं ने उन्हें आगाह करते हुए कहा कि गांव के बाहरी हिस्से में जो कर्कश एवं कृपण महाजन रहता है, वहां न जाना। वहां अपशब्दों और तिरस्कार के अलावा कुछ नहीं मिलेगा। आनंद यह सुनकर मुस्कुराकर रह गए।
उन्होंने भी ठान लिया कि अब तो वहां अवश्य जाना है। कई दिनों तक निरंतर आनंद उसके यहां से अपशब्द सुनकर लौटते रहे, मगर उन्होंने उस महाजन के यहां जाना नहीं छोड़ा। तंग आकर महाजन ने एक दिन आनंद का पात्र सामने आते ही ज़मीन पर पड़ी धूल में से मुट्ठी भर कर पात्र में डाल दी। आनंद ने वह पात्र ज्यों-का त्यों लाकर बुद्ध के चरणों में अर्पित कर दिया। पात्र को देखते ही बुद्ध के चेहरे पर प्रसन्नता की लहर दौड़ गई। सारे भिक्षु आश्चर्य में भरकर बुद्ध की ओर देखने लगे।
उनकी जिज्ञासा का निराकरण करते हुए बुद्ध बोले—’भिक्षुओ, इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं। जिस आदमी ने कभी किसी को कुछ दिया न हो, आज उसने इस पात्र में कुछ अर्पण तो किया है। वह अभी देना सीखने की प्रक्रिया से गुज़र रहा है। अपशब्दों के बाद आज पात्र में धूल ही सही, कुछ तो भरा है। कल शायद इसमें कुछ उपयोगी वस्तु भी डाल ही देगा। मैं यही सोचकर प्रसन्न हो रहा हूं।’ वास्तव में, भिक्षुओं की सहनशीलता के सम्मुख नतमस्तक होकर अगले दिन उस महाजन ने भिक्षा-पात्र को स्वादिष्ट पकवानों से भर दिया।