Poem : यादें बचपन की

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(अपना बचपन किसे याद नहीं आता? मुझे भी बहुत याद आता है।उम्र के वानप्रस्थी कालखंड में उन अल्हड़ दिनों की मधुर स्मृतियां हर व्यक्ति को ताजगी का अहसास कराती हैं और वर्तमान के आडंबर भरे कार्यकलापों को सुधारने के लिये मन को आन्दोलित करती हैं। एक छोटे से गांव में अभावों के बीच संस्कारों के प्रभाव का बचपन बहुत ही आनन्ददायक एवं प्रेरणास्पद है। संवेदनशील हृदय से ईश्वर को आभार व्यक्त करते हुए स्मृतियों की यात्रा पर ले चलता हूं,)

गांव की सोंधी मिट्टी से,
फूली फसलें बनती वाली,
खेतों में फैली हरियाली,
आल्हादित है डाली डाली,
बयार बसन्ती मतवाली,
चिड़ियों की चहकन मनभावन,
फूलों पर भ्रमरों का गुंजन,
मेहनती महरियां करती हैं
गीतों से खेतों में रोपण,
धरती मां के सुन्दर श्रृंगार से
बहती है वायु, ले मदिर गंध,
उन सबसे लेकर भावों को
लिख लेता हूं कुछ गीत छंद।

मेरा छुटपन संवरा है गांव में,
खेत की टेढ़ी सीधी मेंड़ों पर
बाबू चाचा को खेत जोतते देख,
बैल की हांकों पर
सानी, चारा, गोबर, पानी,
कपड़े धोये, तलैया तालों पर
शीत रात में अलाव सेंकते
बतियाती चौपालों पर
रिश्तों के गरमाहट की
वोह यादें देती हैं आनंद
उन सबसे लेकर भावों को
लिख लेता हूं कुछ गीत छंद।

दादा दादी, नाना नानी
वह भी है अजब कहानी
प्रेम पगी उनकी डांटों से
निखरा बचपन और जवानी
कच्ची गलियों का अल्हड़पन
आंधी लपट धूप दुपहरी
कंचा, कंकण, गुल्ली डंडा
छुपम छुपाई, खेल सुनहरी
झगड़ा करते, रूठे मनते
अपने वे सब सखा बृंद
उन सबसे लेकर भावों को
लिख लेता हूं कुछ गीत छंद।

सबसे प्यारी मां थी
वाट जोहती थी आने की
उसको तो बस एक फिकर थी
भूखे लाला के खाने की
धूल बवंडर लेकर घर में
आसमान सिर पर ले आते
भूख लगी है, भूख लगी मां
घर आंगन में शोर मचाते
झूठे गुस्से से डांट डपटकर
खाने के कुछ नियम बताती
पड़ुआ मिट्टी के चूल्हे की
प्रेम सहित रोटियां खिलाती
वत्सल भावों की मूरत
मां कविता है, मां निबन्ध
उन सबसे लेकर भावों को
लिख लेता हूं कुछ गीत छंद।

कवि : संजीव कुमार दुबे